Sunday, March 27, 2011

जीवन- मृत्यु

दोस्तों यह कविता मुझे एक विद्यालय की पुरानी वार्षिक पत्रिका में मिली और एक छात्र (श्री आशीष कुमार) द्वारा लिखी गई है। यह पत्रिका मुझे कचरे में मिली थी। मुझे अच्छी लगी इसलिए मैं आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। लीजिए...

क्या है जीवन?
रहस्य क्या इसका?
मृत्यु क्या है?
सटीक नहीं कहीं उत्तर दिखता।
कहे कोई चलना जीवन है,
हे मानव! तू चलता जा।
कभी ना रुक तू हारकर,
कर्म पथ पर बढ़ता जा।
प्रेम- गीत है यह जीवन,
गाना तेरा काम है।
तुझे बहुत कुछ है करना,
अभी कहाँ आराम है?
दुःखों का जलधि यह जीवन,
जाने इसमें कितने डूबे।
सिंह सम सच ही वह,
जो इनसे कभी न ऊबे।
गुलाबी गुलाबोँ का गुलदस्ता नहीं,
जीवन इतना सस्ता नहीं।
काँटोँ की ये है माला,
जिसे खुदा ने है संभाला।
कोई कहे सुधा सम यह,
कहे कोई यह विष का प्याला।
जीवन मृत्यु है महिमा रब की,
जिसका है अंदाज निराला।
जन्म जीवन यही देता है,
मृत्यु भी इसकी ही देन।
जो जीवन है एक नदी,
तो जीवन इसका घाट है।
अद्भुत पुस्तक है जीवन,
पढ़ना सबका काम है।
जिंदगी जिंदादिली का नाम है,
यही मेरा पैगाम है॥

ये जिंदगी और ये दुनिया

दोस्तों नमस्कार! ये एक कविता है जो मेरे युवावस्था में कदम रखने के तुरंत बाद दुनिया के लिए मेरी अभिव्यक्ति का एक हिस्सा है! क्या आपका भी?
आइए देखें...

ये जिंदगी ही जब
बचपन में थी-

तो सोचा करती थी,
टटोला करती थी;

ये दुनिया क्या है?
ये दुनिया वाले क्या हैं?

तब ये समझ ना पाई थी-

दुनिया क्या है!
दुनिया वाले क्या हैं!!

धीरे- धीरे ये जिंदगी
कुछ बड़ी हो गई,

और इसकी दो आँखें हो गईं,

तब ये देखा करती थी,
विचारा करती थी;

ये दुनिया बड़ी अलबेली है,
ये दुनिया बड़ी निराली है,

पर तब ये समझ ना पाई थी-

ये दुनिया अलबेली क्यों है?
ये दुनिया निराली क्यों है?

दिन निकलते रहे,
रातेँ गुजरती रहीं,
मौसम आते- जाते रहे,

वक्त ना रुका है,
और ना रुका,

वह अपनी रफ्तार से गुजरता रहा;

और तभी एक दिन पता चला-
ये जिंदगी जवान हो गई!

ये जिंदगी जवान हो गई,
और इस दुनिया के लिए,
खेल का बहुत सुंदर मैदान हो गई!

दुनिया का नया रूप देख कर-
ये जिंदगी अवाक रह गई,

दुनिया ये खेल कर निहाल हो गई!
उसके ठोकरोँ से जैसे-
ये जिंदगी लहू लुहान हो गई;

ये दुनिया खेली बहुत!
ये जिंदगी रूँदी बहुत!!

रूँदने से धूल उड़ी और-
सूर्यास्त के बाद तेजी से,
फैलते अंधकार की तरह,
चारों ओर छा गई,

सूरज तो शायद अभी सर पर ही-
चमक रहा होगा!

हरी भरी जमीन पर जैसे,

अपनी उपस्थिति की एक,
बेहद खौफनाक पहचान छोड़कर,

दुनिया कुछ किनारे खड़ी थी-
जैसे कुछ और पा लेने की चाहत में!

जिंदगी के बंद होते आँखों से
दो आँसू लुढ़क गए,

अंतर्मन से टीस भरी कराह निकल गई,

अर्द्ध निशा के गहरे अँधेरे में,
अब ये समझ पाई थी-

ये दुनिया क्या है!
ये दुनिया वाले क्या हैं!!
ये अलबेली क्यों है!
ये दुनिया निराली क्यों है!!

पर अब भी किसी कोने में-

एक नए सवेरे की आशाएँ,
हिलकोरे भर रही थी!

ओस की शीतल बूँदोँ से भीगकर,

नए सवेरे की चमकीली रोशनी में,

फिर से हरियाली ला देने की उमंगें
अभी बाकी थीं!!

Saturday, March 26, 2011

मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समान- 3

मित्रों! भगवान जब प्रसन्न होते हैं तो वह चीज नहीं देते जो आप माँगते हैं। फिर क्या चीज देते हैं? वह चीज देते हैं जिससे आदमी अपने बलबूते पर खड़ा हो जाता है और चारों ओर से उसको सफलताएँ मिलती हुई चली जाती है। सारे के सारे महापुरुषों को आप देखिए, कोई भी आदमी दुनिया के पर्दे पर आज तक ऐसा नहीं हुआ है, जिसको दैवीय सहयोग न मिला हो, जिसको जनता का सहयोग न मिला हो, जिसको भगवान का सहयोग न मिला हो। ऐसे एक भी आदमी का नाम आप बताइए जिसके अंदर से वे विशेषताएँ पैदा न हुई हों, जिनसे आप दूर रहना चाहते हैं, जिनसे आप बचना चाहते हैं। जिनके प्रति आपका कोई लगाव नहीं है। वह चीजें जिनको हम आशीर्वाद कहते हैं, सिद्धांतवाद कहते हैं। दुनिया के हिस्से का हर आदमी जिसको श्रेय मिला हो, धन भी मिला है। जहाँ आदमी को श्रेय मिलेगा वहीँ उसे वैभव भी मिले बिना रहेगा नहीं। संत गरीब नहीं होते। वे उदार होते हैं और जो पाते हैं- खाते नहीं, दूसरों को खिला देते हैं। देवत्व इसी को कहते हैं।

आदमी के भीतर का माद्दा जब विकसित होता है तो बाहरी दौलत उसके नजदीक बढ़ती चली जाती है। उदाहरण क्या बताऊं- प्रत्येक सिद्धांतवादी का यही उदाहरण है। उन्हीं को मैं देव भक्त कहता हूँ। देव उपासक उन्हीं को मैं कहता हूँ। उन्हीं की देव भक्ति को मैं सार्थक मानता हूँ जो अपने गुणों के आकर्षण के आधार पर देवता को अपने आकर्षण में खींच सकने में समर्थ हुए। आपकी भाषा में कहूँ तो देवता जब प्रसन्न होते हैं तो आदमी को देव तत्व के गुण देते हैं, देवत्व के कर्म देते हैं, देवत्व का चिंतन देते हैं और देव तत्व का स्वभाव देते हैं। यह मैंने आपकी भाषा में कहा है। हमारी परिभाषा इससे अलग है। मैं यह कह सकता हूँ कि आदमी अपने देवत्व के गुणों के आधार पर देवता को मजबूर करता है, देवता पर दबाव डालता है उसे विवश करता है और यह कहता है कि आपको हमारी सहायता करनी चाहिए और सहायता करनी पड़ेगी। भक्त इतना मजबूत होता है जो भगवान के ऊपर दबाव डालता है और कहता है कि हमारा 'ड्यू' है। आप हमारी सहायता क्यों नहीं करते? वह भगवान से लड़ने को आमादा हो जाता है कि हमारी सहायता करनी चाहिए।

कामना करने वाले भक्त नहीं हो सकते। भक्त शब्द के साथ में भगवान की इच्छाएँ पूरी करने की बात जुड़ी रहती है। कामना पूर्ति आपकी नहीं भगवान की। भक्त की रक्षा करने का भगवान व्रत लिए हैं- 'योगक्षेमं वहाम्यहम्‌'। यह सही है कि भगवान ने योग क्षेम को पूरा करने का व्रत लिया है, पर हविश पूरी करने का जिम्मा नहीं लिया। आपका योग और क्षेम अर्थात आपकी शारीरिक और मानसिक आवश्यकताएँ पूरी करना उनकी जिम्मेदारी है। आपकी बौद्धिक, मानसिक आवश्यकताएँ पूरी करना भगवान की जिम्मेदारी है, पर आपकी हविश पूरी नहीं हो सकती। हविशोँ के लिए, तृष्णाओँ के लिए भागिए मत। यह भगवान की शान में, भक्त की शान में, भजन की शान में गुस्ताखी है, सबकी शान में गुस्ताखी है। भक्त और भगवान का सिलसिला इसी तरह से चलता रहा है और इसी तरीके से चलता रहेगा। भगवान माँगते नहीं दिया करते हैं। भगवान कोई इंसान नहीं हैं, उसे तो हमने बना लिया है। भगवान वास्तव में सिद्धांतों का समुच्चय हैं, आदर्शों का नाम है, श्रेष्ठता के समुच्चय का नाम है। सिद्धांतों के प्रति, आदर्शों के प्रति आदमी के जो त्याग और बलिदान हैं वस्तुतः यही भगवान की भक्ति है। देवत्व इसी का नाम है।

प्रामाणिकता आदमी की इतनी बड़ी दौलत है कि जनता का उस पर सहयोग बरसता है, स्नेह बरसता है, समर्थन बरसता है। जहाँ स्नेह, समर्थन और सहयोग बरसता है, वहाँ आदमी के पास किसी चीज की कमी नहीं रह सकती। बुद्ध की प्रमाणिकता के लिए, सद्भावना के लिए, उदारता के लिए लोगों ने उनके ऊपर पैसे बिखेर दिए। गाँधीजी की प्रामाणिकता और सद्भावना, श्रेष्ठ कामों के लिए; उनकी लगन, उदारता लोकहित के लिए थी। व्यक्तिगत जीवन में श्रेष्ठता और प्रामाणिकता को लेकर चलने पर वे भक्तों की श्रेणी में सम्मिलित होते चले गए। सारे समाज ने उनको सहयोग दिया, दान दिया और उनकी आज्ञा का पालन किया। लाखों लोग उनके कहने पर जेल चले गए और अपने सीने पर गोलियाँ खाईँ। क्या यह हो सकता है? हाँ! शर्त एक ही है कि आप प्रकाश की ओर चलें, छाया अपने आप आपके पीछे- पीछे चलेगी। आप तो छाया के पीछे भागते हैं, छाया ही आप पर हावी हो गई है। छाया का अर्थ है- माया। आप प्रकाश की ओर चलिए, भगवान की ओर चलिए, सिद्धांतों की ओर चलिए। आदर्श और सिद्धांत इन्हीं का नाम हनुमान है, इन्हीं का नाम भगवान है।

मित्रों! जो हविश आपके ऊपर हावी हो गई है उससे पीछे हटिए, तृष्णाओँ से पीछे हटिए और उपासना के उस स्तर पर पहुँचने की कोशिश कीजिए जहाँ कि आपके भीतर से, व्यक्तित्व में से श्रेष्ठता का विकास होता है। भक्ति यही है। अगर आपके भीतर श्रेष्ठता का विकास हुआ है, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपको जनता का वरदान मिलेगा। चारों ओर से इतने वरदान मिलेंगे कि आप निहाल हो जाएँगे। भक्ति का यही इतिहास है, भक्त का यही इतिहास है। भक्त के अनुग्रह का यही इतिहास है। आप यह समझ लें कि आपको सद्गुणोँ का विकास करने की तपस्या करनी है और भगवान हमको गुण, कर्म और स्वभाव की विशेषता देंगे और हमें चरित्रवान व्यक्ति के रूप में विकसित करेंगे। चरित्रवान व्यक्ति जब विकसित होता है तो उदार हो जाता है, परमार्थ- परायण हो जाता है, लोकसेवी हो जाता है, जनहितकारी हो जाता है और अपने क्षुद्र स्वार्थ छोड़ देता है। यदि आपकी ऐसी मनःस्थिति हो जाए तो समझना चाहिए कि आपने सच्ची उपासना की और वरदान पाया।

मैं चाहता था कि आपलोग यह प्रेरणा लेकर जाएँ कि भगवान हम पर कृपा करें कि श्रेष्ठता के लिए, आदर्शों के लिए कुछ त्याग और बलिदान करने की, चरित्रवान बनने की शक्ति मिले। यदि ऐसा हुआ तो उसके फलस्वरूप आप जो कुछ भी प्राप्त करेंगे, वह इतना शानदार होगा कि आप निहाल हो जाएँ, आपका देश निहाल हो जाए और हम निहाल हो जाएँ।
आज की बात समाप्त॥ ॐ शांति॥
अगली कड़ी में पढ़ें-
'कायाकल्प का मर्म और दर्शन'
धन्यवाद।

Saturday, March 19, 2011

मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समान -2

पिछली कड़ी से आगे..

सफलता साहसिकता के आधार पर मिलती है। यह एक आध्यात्मिक गुण है। इसी आधार पर योगी को भी सफलता मिलती है, तांत्रिक को भी और महापुरुष को भी। हर एक को इसी साहसिकता के आधार पर सफलता मिलती है। चाहे वह डाकू क्यों न हो। आप योगी हैं तो अपनी हिम्मत के सहारे फायदा उठाएँगे। नेता हैं, महापुरुष हैं तो भी इसी आधार पर सफलता पाएँगे। यह एक दैवीय गुण है। इसे आप अपनी इच्छा के आधार पर इस्तेमाल कर सकते हैं, यह आप पर निर्भर है। इंसान के भीतर जो विशेषता है, वह गुणों की विशेषता है। देवता अगर किसी आदमी को देंगे तो गुणों की संपदा देंगे। गुणों से क्या हो जाएगा? गुणों से ही होता है सब कुछ। भौतिक अथवा आध्यात्मिक जहाँ कहीं भी आदमी को सफलता मिली है, केवल गुणों के आधार पर मिली है। श्रेष्ठ गुण न हों तो न भौतिक उन्नति मिलने वाली है, न आध्यात्मिक उन्नति मिलने वाली है।
आदमी जितना समझदार है, नासमझ उससे भी ज्यादा है। यह भ्रांति न जाने क्यों आध्यात्मिक क्षेत्र में घुस बैठी है कि देवता मनोकामना पूरी करते हैं, पैसा देते हैं, दौलत देते हैं, बेटा- बेटी देते हैं, नौकरी देते हैं। इस एक भ्रांति ने इतना ज्यादा व्यापक नुकसान पहुँचाया है कि आध्यात्मिका का जितना बड़ा लाभ, जितना बड़ा उपयोग था, संभावनाएँ थीं, उससे जो सुख होना संभव था, उस सारी की सारी संभावना को इसने तबाह कर दिया। देवता आदमी को एक ही चीज देंगे और उन्होंने एक ही चीज दी है; प्राचीन काल में भी और भविष्य में भी। देवता यदि जिंदा रहेंगे, भक्ति यदि जिंदा रहेगी, उपासना क्रम यदि जिंदा रहेगा, तो एक ही चीज मिलती रहेगी और वह है- देवत्व का गुण। देवत्व के गुण अगर आएँ तब आप जितनी सफलताएँ चाहते हैं, उससे हजारों- लाखों गुनी सफलताएँ आपके पास आएँगी।
क्या आप चाहते हैं कि आपको देवत्व के स्थान पर कुछ रुपयों की नौकरी दिलवा दें। किसी देवता, संत के लिए वह नाचीज हो सकती है। लेकिन यदि देवता देवत्व प्रदान करते हैं, तो वह नौकरी आपको लिए इतनी कीमत की करवा सकते हैं कि आप निहाल हो जाएँगे। विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस के पास नौकरी माँगने गए थे, पर मिला क्या- देवत्व, भक्ति, शक्ति और शांति। यह क्या चीज थे- गुण। मनुष्य के ऊपर कभी संत कृपा करते हैं, संतों ने कभी किसी को कुछ दिया है तो उन्होंने एक ही चीज दी है- अंतरंग में उमंग। एक ऐसी उमंग, जो आदमी को घसीट कर सिद्धांतों की ओर ले जाती है। जब आदमी के ऊपर सिद्धांतों का नशा चढ़ता है, तब उसका चुम्बकत्व, उसका आकर्षण, उसकी प्रामाणिकता इस कदर सही हो जाती है कि हर आदमी खींचा हुआ चला आता है और हर कोई सहयोग करता है। विवेकानंद को सम्मान और सहयोग दोनों मिला। यह किसने दी थीं- काली ने। काली अगर किसी को कुछ देंगी तो यही चीज देंगी। यदि दुनिया में दुबारा कोई रामकृष्ण जिंदा होंगे या पैदा होंगे, तो इसी प्रकार का आशीर्वाद देंगे, जिससे आदमी का व्यक्तित्व विकसित होता चला जाए। व्यक्तित्व विकसित होगा तो जिसे आप चाहेंगे वह सहयोग करेगा। तब सहयोग माँगा नहीं जाता, बरसता है। आदमी फेंकता जाता है और सहयोग बरसता जाता है। देवत्व जब आता है तो सहयोग बरसता है। बाबा साहब आम्टे का उदाहरण आपके सामने है; जिन्होंने कुष्ठ रोगियों के लिए, अपंगोँ के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया। यह क्या है? सिध्दांत है, आदर्श है और वरदान है। इससे कम में न किसी को वरदान मिला है और न किसी को मिलेगा। भीख माँगने पर देवताओं से न किसी को मिला है और न किसी को मिलेगा।
देवता एक काम करते रहते हैं। क्या करते हैं? फूल बरसाते हैं। रामायण में कोई पचास उल्लेख हैं देवताओं के फूल फहराने के। फूल क्या बरसाते हैं सहयोग बरसाते हैं। फूल किसे कहते हैं? सहयोग को कहते हैं। कौन बरसता है? देवत्व बरसता है जो अभी इस दुनिया में अभी जिंदा है। देवत्व ही दुनिया में जिंदा था और जिंदा ही रहने वाला है। देवत्व मरेगा नहीं। यदि हैवान या शैतान नहीं मर सका तो भगवान क्यों मरने लगा। इंसान, इंसान को देख कर आकर्षित होता है। देवता, देवता को देख कर आकर्षित होते हैं। और श्रेष्ठता को देख कर सहयोग आकर्षित होता है। पहले भी यही होता रहा था, अभी भी होता है और आगे भी होता रहेगा।
देवता कैसे होते हैं? देवता ऐसे होते हैं जो आदमी के ईमान में घुसे रहते हैं और उसके भीतर एक ऐसी हूक, एक ऐसी उमंग और एक ऐसी तड़पन पैदा करते हैं जो सारे के सारे जाल- जंजालोँ को तोड़ती हुई सिध्दांतोँ की ओर, आदर्शों की ओर बढ़ने के लिए आदमी को मजबूर कर देती है। इसे कहते हैं देवता का वरदान। इससे कम में देवता का वरदान नहीं हो सकता। आदमी के भीतर जब गुणों की, कर्मों की, स्वभाव की विशेषता पैदा हो जाती हैं तो विश्वास रखिए तब उसकी उन्नति के दरवाजे खुल जाते हैं। इतिहास में जितने भी आदमी सफल हुए हैं और जिनके सम्मान हुए हैं, उनमें से प्रत्येक, गुणों के आधार पर बढ़े हैं। देवता का वरदान गुण और चिंतन की उत्कृष्टता है। संसार के महापुरुषों में से हर एक सफल व्यक्ति का इतिहास यही रहा है। अनुग्रह की एक ही पहचान है- जिम्मेदारी का होना, समझदारी का होना।
पूजा क्यों करते हैं? पूजा का मतलब एक ही है- इंसानियत का विकास, कर्मों का विकास, स्वभाव का विकास। पूजा के द्वारा वस्तुतः दया मिलती है, शराफत मिलती है, ईमानदारी मिलती है। आदमी को ऊँचा दृष्टिकोण मिलता है। अगर आपने दूसरी पूजा की होगी तो आप भटक रहे होंगे। पूजा आपको इसी तरीके से करनी चाहिए की जो पूजा के लाभ आज तक इतिहास में मनुष्यों को मिले हैं, वह हमको भी मिलने चाहिए। हमारे गुणों का विकास, कर्म का विकास, चरित्र का विकास और भावनाओं का विकास होना चाहिए। देवत्व इसी का नाम है। देवत्व यदि आपके पास आएगा तो आपके पास सफलता आएँगी। हिंदुस्तान के इतिहास पर नजर डालिए, उसके पन्नों पर जो बेहतरीन आदमी दिखाई देते हैं, वे अपनी योग्यता और अपनी विशेषता के आधार पर महान बने हैं। महामना मालवीय जी का नाम सुना है आपने, कितने शानदार व्यक्ति थे वे। उन पर देवताओं का वरदान बरसा था और छोटे आदमी से वे महान हो गए।
क्रमशः.

Saturday, March 12, 2011

स्वतंत्रता दिवस की बधाई!

दोस्तों यह ब्लॉग मैंने स्वतंत्रता दिवस पर लिखा था लेकिन तब मैं इसे प्रकाशित नहीं कर पाया था लेकिन आज जब मैं इसे पढ़ रहा था तो मुझे यह आज भी उतना ही प्रासंगिक लगा और मैं इसे अपने तक सीमित रख पाने का धैर्य नहीं रख पाया। इसी कारण से मैं इसे आज प्रकाशित कर रहा हूँ । 

आपको स्वतंत्रता दिवस की बधाई!
लेकिन क्या हम आज के दिन बधाई देने या लेने के योग्य रह पाए या कहिए बन पाए हैं? लेकिन यह भी एक सत्य, कटु सत्य है कि हम इससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते। हमारे देश में अंग्रेजोँ से आजादी के बाद से अभी तक कभी भी नागरिकों की कद्र नहीं रही। हमारे नीति निर्माताओं ने जाने अनजाने गैर नागरिक तत्वों को बल एवं सुरक्षा प्रदान किया है। आम नागरिक के लिए अपना उचित अधिकार पाना भी दिन पर दिन दुभर होता जा रहा है जबकि तथाकथित संविधान के विरुद्ध जाकर आचरण करने वालों के लिए अपनी अनुचित माँगें भी पूरी करा लेने के उदाहरण बढ़ते जा रहे हैं। सड़क जाम, रेल रोकने, सार्वजनिक संपत्तियोँ को नुकसान पहुँचाने की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं।
आरक्षण का ऐसा जहर हमारे बीच बो दिया गया है जो हर एक बीते दिन के साथ गृह युद्ध की बुनियाद रख रहा है। आए दिन एक नया समुदाय अपने लिए आरक्षण की माँग कर रहा है। दरअसल कुल आरक्षण के बाद बची जगहों पर चयन के लिए लोग अपनी योग्यता पर विश्वास नहीं कायम रख पा रहे हैं।
भाषाई आधार पर बनी दूरियोँ को कम करने के स्थान पर इतना गहरा कर दिया गया है जो हर आने वाले वर्ष में एक नए राज्य की सीमा तैयार कर रहा है। एक राज्य दूसरे राज्य के साथ सहयोग एवं सामंजस्य के द्वारा उन्नति करने के बजाय एक दूसरे को अपना शत्रु समझ रहे हैं। कोई भी ऐसे पड़ोसी राज्य नहीं हैं जिनमें किसी मुद्दे को लेकर विवाद न हो। जब कई देश आपस में संबंध सुधारने के प्रयास कर रहे हैं, ऐसा लगता है हमारी सीमाओं के भीतर ही कई देश बन गए हैं। हम अनेक छोटे देशों जैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तिब्बत, इराक, ईरान आदि की हालत से सबक लेने को तैयार नहीं हैं।
परिवार की सीमाएँ छोटी होती जा रही हैं। एक ओर कार्य की विवशता से परिवार बिखर रहे हैं लेकिन इससे ज्यादा नुकसान भावनात्मक लगाव टूटने से हो रहा है। लोग रिश्तोँ को संभालने के बजाय उन पर से गुजरते हुए अपने लिए रास्ते तलाश रहे हैं। परिणाम स्वरूप बच्चों पर से उन अनुभवी हाथों का सहारा हटता जा रहा है जो उन्हें गलत सुरों को छेड़ने से पहले ही सँवार लेते थे। आज, अश्लीलता, नशे में जकड़े अनजान राहोँ पर चलते बच्चे एक चिंताजनक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।
अशिक्षा, लगातार बढ़ती जनसंख्या, भ्रष्टाचार के नित नए आयाम, प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, अमीरोँ एवं गरीबों में बढ़ता अंतर आदि कई अन्य बिंदु हैं जहाँ निराशा मिली है।
वस्तुतः अंग्रेजोँ ने जो शासन व्यवस्था बनाई हम कमोबेश उसी पर चलते रहे हैं। एक तो अंग्रेजोँ ने वह व्यवस्था अपने राज्य को सुदृढ़ एवं संपन्न बनाने के लिए की थी भले इसका कुछ भी प्रभाव स्थानीय लोगों पर पड़ता हो। दूसरे, ब्रिटेन या अमेरिका जैसे देशों से हमारी आवश्यकताएँ सर्वथा भिन्न हैं। यह सच है कि, आज हम उन्हीं अंग्रेजोँ द्वारा रखी बुनियाद पर चलते हुए यहाँ तक पहुँचे हैं जिसमें आज की बहुमँजिला इमारतें, रेल गाड़ियाँ, डाक व्यवस्था, बैंकिंग क्षेत्र, आधुनिक सैन्य व्यवस्था आदि बहुत से अन्य आयाम शामिल हैं।
लेकिन यह भी सच है कि इनमे से अधिकतर सुविधाएँ हमारी मज़बूरी हैं न कि हमारा चुनाव। व्यक्ति इन्हीं सुविधाओं में अपने जीवन के वास्तविक मूल्य खोज रहा है और इन्हीं मशीनों के जैसे व्यवहार कर रहा है। आज व्यक्ति इन सुविधाओं पर नियत्रण रखने और नियंत्रण करने कि बजाए खुद उनके नियंत्रण में होता जा रहा है।  हम एक जबरदस्त भंवर में फंसते जा रहे हैं जिसमें हम नौकरी की (जी हाँ नौकरी की!) शिक्षा पाते हैं फिर अपने बच्चों को वही शिक्षा दिलाते हैं और ये क्रम कई पीढ़ियों से हमारे समाज में चल रहा है। हममें से बहुत कम लोग मौलिक स्तर पर कुछ सोच पाते हैं या कर पाते हैं। हमें इन समस्याओं के समाधान शीघ्र खोजने होंगे।

मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समान

देवियोँ! भाइयों!!
देवताओं के अनुग्रह की बात आपने सुनी होगी। देवता नाम ही इसलिए रखा गया
है क्योंकि वे दिया करते हैं। प्राप्त करने की इच्छा से कितने ही लोग
उनकी पूजा करते हैं, उपासना करते हैं भजन करते हैं, आइए- इस पर विचार
करते हैं।
देवता देते तो हैं, इसमें कोई शक नहीं है। अगर वे देते न होते तो उनका
नाम देवता न रखा गया होता। देवता का अर्थ ही होता है- देने वाला। देने
वाले से माँगने वाला कुछ माँगता है तो कुछ गलत बात नहीं है। पर विचार
करना पड़ेगा कि, आखिर देवता देते क्या हैं? देवता वही चीज देते हैं जो
उनके पास है। जो जिसके पास जो चीज होगी, वही तो दे पाएगा! देवताओं के पास
और चाहे जो हो पर एक चीज अवश्य है- देवत्व। देवत्व कहते हैं- गुण, कर्म
और स्वभाव तीनों की श्रेष्ठता को। इतना देने के बाद देवता निश्चिँत हो
जाते हैं, निवृत्त हो जाते हैं और कहते हैं कि हम जो दे सकते थे वह दिया।
अब आपका काम है कि, जो चीज हमने आपको दी है, उसको आप जहाँ भी मुनासिब
समझें, इस्तेमाल करें और उसी किस्म की सफलता पाएँ।

दुनिया में सफलता एक चीज के बदले में मिलती है- उत्कृष्ट व्यक्तित्व के
बदले। इससे कम में कोई चीज नहीं मिल सकती। अगर कहीं से किसी ने घटिया
व्यक्तित्व की कीमत पर किसी तरीके से अपने सिक्के को भुनाए बिना, अपनी
योग्यता का सबूत दिए बिना, परिश्रम के बिना, गुणों के बिना, कोई चीज
प्राप्त कर ली है तो वह उसके पास ठहरेगी नहीं। शरीर में हज़म करने की ताकत
न हो तो जो खुराक आपने ली है, वह आपको हैरान करेगी, परेशान करेगी। इसी
तरह संपत्तियोँ को, सुविधाओं को हज़म करने के लिए गुणों का माद्दा नहीं
होगा तो वे आपको तंग करेंगी, परेशान करेंगी। अगर गुण नहीं हैं तो जैसे
जैसे दौलत बढ़ती जाएगी वैसे वैसे आपके अंदर दोष- दुर्गुण बढ़ते जाएँगे,
अहंकार बढ़ता जाएगा और आपकी जिंदगी को तबाह कर देगा।

देवता क्या देते हैं? देवता हज़म करने की ताकत देते हैं। जो दुनियाबी दौलत
या जिन चीजों को आप माँगते हैं, जो आपको खुशी का बायस मालूम पड़ती हैं, उन
सारी चीजों का लाभ लेने के लिए विशेषता होनी चाहिए। इसी का नाम है-
देवत्व। देवत्व यदि प्राप्त हो जाता है तो आप दुनिया की हर चीज से, छोटी
से छोटी चीज से फायदा उठा सकते हैं। ज्यादा चीजें हो जाएँ तो भी अच्छा
है, यदि न हो पाएँ तो भी कोई हर्ज नहीं। मनुष्य के शरीर में ताकत होनी
चाहिए लेकिन समझदारी का नियंत्रण न होने से आग में घी डालने के तरीके से
वह सिर्फ दुनिया में मुसीबतेँ पैदा करेगी। इंसानियत उस चीज का नाम है;
जिसमें आदमी का चिंतन, दृष्टिकोण, महत्वाकांक्षाएँ और गतिविधियाँ ऊँचे
स्तर की हो जाती हैं। इंसानियत एक बड़ी चीज है।

मनोकामनाएँ पूरी करना बुरी बात नहीं है, पर शर्त एक ही है कि किस काम के
लिए, किस उद्देश्य के लिए माँगी गई हैं? यदि सांसारिकता के लिए माँगी गई
हैं तो उससे पहले यह जानना जरूरी है कि उस दौलत को हज़म कैसे करेंगे? उसे
खर्च कैसे करेंगे? देवताओं के संपर्क में आने पर हमें सद्गुण मिलते हैं,
देवत्व मिलता है। सद्गुणोँ से व्यक्ति को विकास करने का अवसर मिलता है।
गुणों के विकसित होने के बाद मनुष्यों ने वह काम किए हैं जिन्हें सामान्य
बुद्धि से वह नहीं कर सकते थे। देवत्व के विकसित होने पर कोई भी उन्नति
के शिखर पर जा पहुँच सकता है, चाहे वह सांसारिक हो या आध्यात्मिक। संसार
और अध्यात्म में कोई फर्क नहीं पड़ता। गुणों के इस्तेमाल करने का तरीका भर
है। गुण अपने आप में शक्ति पुंज हैं, कर्म अपने आप में शक्ति पुंज हैं,
स्वभाव अपने आप में शक्ति पुंज हैं। इन्हें कहाँ इस्तेमाल करना है, यह आप
पर निर्भर है।
क्रमशः ...

आइए चर्चा करें

नमस्कार।
मित्रों मेरे पास कुछ पुस्तकें हैं जिनका अध्ययन मेरे मत से हमारे
व्यावहारिक जीवन के लिए काफी उपयोगी हो सकता है। मैं उनमें से कुछ लेख
यहाँ प्रकाशित करने का प्रयास करूँगा। यदि आपको उपयोगी लगें तो इसे लिँक
करके औरों तक भी पहुँचाएँ। यदि कुछ न जँचे तो टिप्पणी से मुझे सूचित भी
करें।
हो सकता है मेरा प्रयास पूरा न पड़े और बीच में व्यतिक्रम हो तो उसके लिए
मैं पूर्व में ही क्षमा चाहूँगा।

--
durgadatt c.

Tuesday, March 8, 2011

वो पल नहीं भूला हूँ

वो 2001 के जून का महीना था। उस समय मैं अपनी संक्षिप्त तकनीकी शिक्षा
पूरी करके गुडगाँव की एक कंपनी में अस्थाई तौर पर कार्य करता था। कार्य
करते लगभग तीन महीने ही हुए थे। गुडगाँव शहर से करीब आठ किलोमीटर दूर एक
छोटा बाजार है मानेसर, उसके थोड़ा पहले एक गाँव में रहता था। अपनी छोटी
जरूरतों को छोड़कर बाकी के लिए गुडगाँव जाना पड़ता था। वेतन मिला था और मैं
कुछ सामान जिसमें; 'रोजगार समाचार' लेना प्रमुख था, के लिए गुडगाँव गया
था।
गुडगाँव जाने के लिए टेँपो मिलता था लेकिन वापसी के लिए टेँपो के बजाय हम
जीप पकड़ना पसंद करते थे। सो मैं एक जीप में गया। जीप लम्बी दूरी के लिए
चलती थी इसलिए हमें लेने में थोड़ी आनाकानी करते थे। खैर जीप खाली थी
इसलिए मुझे जगह मिल गई। मैं अपनी पसंद से आगे की सीट पर बैठ गया। कुछ देर
बाद एक यात्री आया जो आगे की सीट पर ही बैठना चाहता था सो जीप वाले ने
मुझे बीच की सीट पर बैठने को कहा। मैं भी चुपचाप बीच में बैठ गया। कुछ
देर बाद एक और यात्री आया और पीछे की सीट पर बैठने से मना कर दिया सो जीप
वाले ने फिर मुझे पीछे की सीट पर बैठ जाने को कहा। मुझे थोड़ा गुस्सा तो
आया लेकिन मैंने कुछ बोले बगैर पीछे जाकर बैठ गया- मजबूरी थी।
जब जीप चली तो उसमें लगभग नौ या दस लोग थे, पीछे की तरफ मेरे अलावा एक और
यात्री था- मैं बाएँ तरफ वो दाईँ तरफ। मेरी एक आदत थी या अब भी है, कि
गाड़ी चलते समय यदि संभव हुआ तो मैं सामने सड़क पर एवं स्पीडोमीटर पर नजर रखता हूँ;
उस दिन भी मैं यही कर रहा था। सो मैं देख रहा था कि गाड़ी लगभग अस्सी
किलोमीटर प्रति घंटे की चाल से चल रही थी। शहर अभी खतम भी नहीं हुआ था
लेकिन कुछ दूर का रोड डिवाइडर खतम हो गया था। चालक गाड़ी चलाने के साथ ही
अपने बगल के यात्री से बात भी कर रहा था। तभी सामने से आता एक ट्रक जो
आगे की गाड़ी से ओवरटेक कर रहा था दिखाई दिया। जब तक जीप का चालक कुछ समझ
कर जगह दे पाता ट्रक ने पूरी गति से जीप के दाहिने तरफ बीच में टक्कर मार
दी। यह पूरी घटना एक सेकंड के चौथाई भाग में घटी लेकिन मैंने उसे घटित
होते देखा। इसके बाद का शायद आप कुछ अंदाज लगा सकते हैं। जीप दो पूरी तरह
चित्त! मुझे चोट आयी थी लेकिन मुझे उसका अंदाजा नहीं था, मैं खुद को
संभालते हुए जीप के बाहर आया। इसके बाद मैंने जो देखा उस पर मेरी आँखो को
विश्वास नहीं हुआ। अब तक मैंने किसी को मरते नहीं देखा था- किसी जानवर को
भी नहीं, लेकिन वहाँ मैंने न सिर्फ देखा बल्कि उन्हें महसूस भी किया। दो
यात्री मेरे सामने मर गए और वो और कोई नहीं, वही दो थे जो मेरी जगह पर
बैठ गए थे। शेष जो थे उनमें एक भी खुद से उठने में सक्षम नहीं था। मैं
हतबुद्धि खड़ा था। काफी भीड़ जमा हो गई थी। लेकिन वे सब केवल दर्शक मात्र
थे। उनमें से ही एक ने मुझे मेरे घाव की तरफ इशारे से बताया। मैंने सिर
के पीछे हाथ लगाया तो मेरा हाथ खून से रंग गया। एक स्कूटर वाले से
अस्पताल तक लिफ्ट देने को कहा तो वह अपनी गाड़ी ले कर भाग गया। दूसरा आगे
आया लेकिन बोला मैं- अस्पताल के दरवाजे तक ही छोड़ूँगा। मुझे और क्या
चाहिए था। फिर मैं अस्पताल पहुँचा। वहाँ थोड़ी औपचारिकता के बाद मेरा इलाज
शुरू हुआ। तब तक पुलिस की सहायता से और भी घायल आने लगे।
अस्पताल से प्राथमिक चिकित्सा के बाद छुट्टी मिल गई- सिर के पिछले हिस्से
में आठ टाँके आए थे। अस्पताल से मैं पैदल ही निकल लिया और घटना स्थल तक
पहुँच गया। मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि मौत दो बार मुझ तक आते आते रह
कैसे गई? आज भी मैं यह नहीं समझ पाया हूँ कि यहाँ 'जाको राखे साईयाँ';
वाली बात सही हुई या 'जितनी चाबी भरी राम ने'; वाली।
एक और विकल्प है लेकिन वह कमजोर है। मैं एक संस्था से जुड़ा हूँ और नियमित
अपनी सहयोग राशि वेतन मिलने पर भेज दिया करता था। दुर्घटना वाले दिन ही
उसकी एक रसीद मुझे मिली थी और मेरे जेब में थी। क्या मैं उस कारण बच गया?
यह पक्ष कमजोर इसलिए है कि इसमें मुझे बचा लेना हो सकता है लेकिन मेरी
जगह किसी और को मार देना तो नहीं ही हो सकता।
कुछ भी हो लेकिन अगर मैं मर जाता तो पुलिस के पास मुझे एक अनजान व्यक्ति
की तरह निपटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता क्योंकि मेरे पास पहचान का
कोई साधन ही नहीं था।
एक अफसोस भी रहता है कि मैं अपनी चोट में घबरा कर दूसरों की कोई सहायता
नहीं कर पाया हालाँकि मैं हिम्मत से काम ले के ये कर सकता था।
आज उस घटना को लगभग दस साल बीत चुके हैं लेकिन अब भी मेरे जेहन में वो
घटना जस की तस है, चोट का एक टाँका भी क्योंकि जिस डॉक्टर ने वे काटे
उसने गलती से एक टाँका सिर में ही छोड़ दिया। अब तो उस पर चमड़ी आ चुकी है।
इस घटना से एक बात सीखी- कहीं भी चलो तो कम से कम अपने पहचान का कोई साधन
ले के अवश्य चले।

Tuesday, March 1, 2011

महा शिवरात्री

आप सभी को महा शिवरात्री की शुभकामनाएँ।

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मेरें Nokia फ़ोन से भेजा गया