Wednesday, August 31, 2011

हमारी हरिद्वार एवं जम्मू की यात्रा- 4

भैरव नाथ के मंदिर से कटरा की तरफ उतरने पर ढलान काफी तेज है और यात्री भी थके होते हैं। पैरों के थके होने से ढलान पर गति को नियंत्रित कर पाना भी कठिन होता है और ढलान के साथ तेज उतरना भी। माँ, पिताजी और ससुरजी तीनों ही काफी थक चुके थे। सुबह नहाने से हमारे पास कुछ गीले कपड़े थे और साथ में प्रसाद के कुछ थैले भी। दरअसल जम्मू के लिए निकलते समय कुछ मित्रों ने प्रसाद के लिए पैसे दिए थे और उनका प्रसाद भी हमारे साथ था। इन सब से हमारा सामान पहले से अधिक भारी हो गया था और इसका बड़ा भाग मेरे छोटे भाई साहब आदित्य के कंधों पर था। अनुष्का को लेकर चलते हुए मेरे कंधे भी जवाब दे रहे थे। इसलिए हमें चलने में काफी मेहनत करनी पड़ रही थी। पर मेरे पिताजी और ससुरजी मेरी माँ और पत्नी प्रीति की धीमी चाल के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहे थे। वे थोड़ी दूर आगे निकल जाते और फिर हमारे पहुँचने की प्रतीक्षा करते। अधकुँवारी से कुछ दूर पहले रुक कर पिताजी और ससुरजी हमारा इंतजार कर रहे थे और चाय भी पी रहे थे। जब हम पहुँचे तो उनकी चाय खतम हो रही थी इसलिए वे आगे बढ़ गए और हम रुक कर चाय पीने लगे। आदित्य को भी धीमे चलने से भार ज्यादा महसूस हो रहा था सो वे आगे बढ़ना चाहते थे। इसलिए हमने उन्हें भी यह कहकर जाने दिया कि जब थक जाएँ तो वहीँ रुक कर इंतजार करें।
हमने चाय पी और फिर आगे बढ़े। यहाँ से एक समस्या शुरू हुई लेकिन हमें इसका आभास नहीं हुआ। अब हम दो दलों में बँट गए थे- पहले दल में मेरे पिताजी, ससुरजी और आदित्य थे और दूसरे दल में मैं, मेरी माँ और प्रीति मेरी पत्नी थे। वो आगे चल रहे थे और हम थोड़ा पीछे लेकिन हमारी गति कम होने से दोनों दलों के बीच दूरी बढ़ती जा रही थी। हम अधकुँवारी पहुँचे थोड़ा रुके और फिर आगे बढ़े। हमें थोड़ा आश्चर्य हो रहा था कि दूसरा दल यहाँ हमारे लिए रुका नहीं और सीधे आगे बढ़ गया। खैर कछुए की धीमी रफ्तार से चलकर हम जब नीचे मुख्य प्रवेश द्वार पर पहुँचे तो शाम के पाँच बज रहे थे। हमने अपने दूसरे दल के लोगों को तलाशने की कोशिश की लेकिन वहाँ कोई नहीं दिखा तो हम बाहर निकल आए क्योंकि बाहर ही प्रायः लोग अपने पीछे से आते साथियों की प्रतीक्षा करते हैं। लेकिन आश्चर्य यहाँ भी कोई नहीं था। अब हम थोड़े परेशान भी थे और थोड़ी खीझ भी आ रही थी आखिर कहाँ जा कर बैठे हैं यह लोग। मैं अपने दल को छोड़कर उनकी तलाश में पीछे भी नहीं जा सकता था। हमने करीब पौन घंटा इंतजार किया कि शायद कहीं पीछे ही बैठे होंगे तो आ जाएँगे। जम्मू में एक और समस्या है- वहाँ सिर्फ पोस्ट पेड मोबाइल कनेक्शन ही चालू रहते हैं, प्री पेड कोई भी कनेक्शन नहीं। हमारे पास सिर्फ एक ही एक्टिव मोबाइल था जो मेरे पास था बाकी सभी के मोबाइल बंद थे। इस वजह से भी अब हमें काफी परेशानी थी। तभी आदित्य ने एक पे फोन से मुझे फोन किया तब हम कुछ आश्वस्त हुए। लेकिन अभी तो चौंकने का समय था। आदित्य बाहर आए तो वे अकेले थे, पिताजी और मेरे ससुरजी उनके साथ नहीं थे! आदित्य ने बताया कि वे उसे अधकुँवारी से ही नहीं मिले। अब एक ही अनुमान शेष था और हमारे लिए संभावना भी। हमें विश्वास था कि अवश्य पिताजी थके होने के कारण मेरे ससुरजी को साथ लेकर होटल चले गए होंगे क्योंकि इस दल के साथ मैं और आदित्य थे। हमने करीब बीस मिनट प्रतीक्षा करने के बाद होटल चलने का निश्चय किया। मन में एक ही बात आ रही थी कि काश वे दोनों लोग होटल पहुँच गए हों। लेकिन जब हम होटल पहुँचे तो पता चला कि वहाँ पिताजी नहीं पहुँचे हैं। अब परेशानी चिंता का सबब बन गई थी। हमने सबसे पहले एक कमरा बुक किया ताकि माँ और प्रीति को वहाँ छोड़ा जा सके। फिर हम वापस तीन किलोमीटर पीछे चलकर बाणगंगा गए। फिर हमने उद्घोषणा कक्ष में मिल कर पिताजी के लिए संदेश कहलवाया लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। फिर हमने मुख्य द्वार पर सुरक्षा कर्मियों से बात की और उन्हें खोजने अंदर गए। मैंने आदित्य को उद्घोषणा कक्ष के पास ही बैठा दिया ताकि संदेश सुनकर यदि पिताजी वहाँ आएँ तो मिल सकें। मैं पीछे चलता हुआ करीब बाणगंगा पहुँच गया लेकिन वे नहीं मिले। मेरी परेशानी बढ़ती जा रही थी। रात हो रही थी, यह लोग मिल नहीं रहे थे और अगली सुबह माँ और आदित्य की गाड़ी थी- पहले दिल्ली और बाद में वहाँ से पुणे के लिए। तभी मेरे ससुरजी का फोन आया जो उन्होंने होटल से किया था। मेरी तो जैसे जान में जान आ गई हो। लेकिन जब परेशानी आती है तो इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ती। उन्होंने बताया कि पिताजी काफी नीचे तक साथ आए थे लेकिन उसके बाद भीड़ में वे अलग हो गए थे। लेकिन उन्होंने बताया था कि वे बाणगंगा से आगे तक साथ में थे। इसलिए मैं फिर वापस उन्हें खोजता हुआ नीचे आने लगा। मुख्य द्वार पर आकर आदित्य से मिला। तभी मुख्य द्वार के पास ही पिताजी दिखाई दिए। अभी तक न जाने कितने संस्करणोँ में अनगिनत शंकाएँ आ रही थी वे सब जैसे एक साथ विलीन हो गईं। हम पिताजी को लेकर होटल पर आए, ससुरजी को साथ लिया और कमरे पर पहुँचे तब करीब साढ़े आठ बजे थे। दरअसल हुआ यह था कि आदित्य पिताजी और ससुरजी से शुरू से ही अलग हो गया था। उसे लगा था कि वे पीछे ही चल रहे हैं लेकिन भीड़ में वे अलग हो गए थे। इसके बाद पिताजी और ससुरजी अधकुँवारी में रास्ते से हटकर एक बेँच पर बैठकर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे लेकिन न हम उन्हें देख पाए न वे हमें जबकि हम भी वहीँ आगे कुछ देर बैठे थे। आदित्य सीधे बाणगंगा आए थे और रास्ते से हटकर एक किनारे बैठ कर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे और बैठे बैठे सो गए थे। बाणगंगा के आगे आकर पिताजी और ससुरजी अलग हो गए थे। ससुरजी को लगा कि पिताजी आगे आ गए हैं और पिताजी को लगा कि ससुरजी पीछे ही हैं।
सुबह नौ बजे माँ की गाड़ी थी इसलिए समय बहुत कम बचा था और पैकिँग आदि बहुत काम बचे थे। हम फटाफट क्लोक रूम से सामान लेकर आए, खाना खाया और पैकिँग शुरू की। मैं पैरों में दर्द को कम करने की एक दवाई ले आया जिसे लगाने के बाद थोड़ा आराम मिला। पैकिँग खतम होने तक करीब ग्यारह बज चुके थे।

Sunday, August 28, 2011

हमारी हरिद्वार एवं जम्मू की यात्रा- 3

दो वर्ष से पाँच वर्ष के बच्चों को संभालना बच्चों के मामले में शायद सबसे कठिन काम है। वे न तो एकदम छोटे बच्चों जैसे हर बात को मानने को तैयार होते हैं न बड़े बच्चों जैसे समझदार होते हैं। हर बात में अत्यंत उत्सुक और हर चीज को स्वयं आजमाने को तैयार! न तो गोद में चलने को तैयार न ज्यादा देर तक पैदल चलने में सक्षम! इन बच्चों की इसी प्रवृत्ति के कारण अत्यंत सावधानी से इनकी देखभाल करनी पड़ती है। इस मामले में हम भी अपवाद नहीं थे। अनुष्का के लिए वैसे तो वैष्णो देवी की यह दूसरी यात्रा थी पर पहली बार वह सिर्फ सात माह की थी। उस समय का एक अलग अनुभव है जिसे अलग लिखना ही उचित होगा। इस बार की स्थिति बिलकुल अलग थी। भीड़ में बच्चों के गुम होने का अंदेशा रहता है। पैदल चलते समय ठोकर खा कर चोटिल होने की संभावनाएँ रहती हैं। यात्रा के दौरान बार बार वातावरण बदलने से भी उनके बीमार पड़ने की संभावना रहती है। खान पान की एक तो फर्माईशेँ और नियंत्रण करना भी जरूरी होता है। सब मिला कर काफी सावधानी रखनी पड़ती है और कार्य काफी कठिन है। अनुष्का के लिए पिठ्ठू हम दो लोग थे- मैं और मेरे छोटे भाई आदित्य। सामान हमने सिर्फ जरूरत का ही साथ लिया था लेकिन बारिश को देखते हुए अतिरिक्त कपड़े रखना आवश्यक था और इस वजह से भार भी बढ़ना ही था। उसे हम सब ने मिलकर बाँट लिया था लेकिन उसका भी एक बड़ा भाग हमारे ही पास था। आपको एक और बात बता दूँ- कटरा से आगे बढ़ने से पहले श्राईन बोर्ड के कार्यालय से एक यात्रा पर्ची लेना आवश्यक है। यह एक तरह से पंजीकरण है जिससे यात्रियों का हिसाब रखना संभव हो पाता है। इसके लिए दल का कोई भी एक सदस्य जा कर अपने दल का विवरण बता कर पर्ची ले सकता है। यह पर्ची साथ रखना आवश्यक है। कटरा से भवन तक के करीब चौदह किलोमीटर के दौरान कई चेक पोस्ट हैं जहाँ सभी यात्रियों की उनके सामान के साथ तलाशी होती है। यह यात्रियों की सुरक्षा के जरूरी भी है। मुख्य प्रवेश द्वार के बाद बाणगंगा पहला चेक पोस्ट है। यह करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर है। यात्रा पर्ची लेने के बाद छः घंटे के भीतर इस चेक पोस्ट को पार करना यात्रियों के लिए आवश्यक है।
यात्रा में शुरू के तीन चार किलोमीटर थोड़े ज्यादा थकाने वाले होते हैं उसके बाद शरीर अपने को अनुकूलित कर लेता है। मुझे प्रसन्नता होती है अपने माँ पिताजी के स्वास्थ्य को देखकर। मेरे पिताजी की आयु अभी 68 वर्ष है जबकि माँ की आयु 62 वर्ष है लेकिन वे अपने बगल में चलने वाले कई युवाओं के लिए भी मिसाल थे। वैसे वे भी अपवाद नहीं थे- आपको अनेकोँ बुजुर्ग व्यक्ति मिल जाएँगे। करीब छः किलोमीटर आगे अधकुँवारी का मंदिर है। यह एक गुफा में है। यदि आपको यहाँ दर्शन करने हैं तो वहीँ काउंटर से एक और पर्ची लेनी होती है जिस पर आपका समूह क्रमांक लिखा होता है जिसके अनुसार आपको गुफा में प्रवेश की अनुमति मिलती है। एक समूह में पचास लोग होते हैं। यदि आपके पास समय कम है तो आप सीधे माता के भवन की तरफ आगे बढ़ सकते हैं। हमारे दल में बच्चे और बुजुर्ग होने की वजह से हमने भी आगे बढ़ने का ही फैसला किया। दरअसल हमें समूह संख्या 267 मिली थी जबकि अभी 145वें समूह की बारी थी जो शाम आठ बजे प्रवेश करने वाला था। इसका अर्थ यह था कि हमें अपनी बारी के लिए शायद रात भर खुले आसमान के नीचे बैठना पड़ता। यात्रा का दूसरा सबसे कठिन भाग अंतिम तीन चार किलोमीटर का होता है। तब तक अधिकांश लोग थक चुके होते हैं और साथ ही मानसिक रूप से भी पहुँचने की जल्दबाजी होती है। इस भाग में चढ़ाई भी थोड़ी कठिन है। शायद इसी बात को अनुभव करके इस भाग में पहले हर आधे किलोमीटर पर हर फिर ढाई सौ मीटर पर संकेतक लगे हैं जो यात्रियों को हिम्मत देते हैं। हम करीब रात के साढ़े दस बजे ऊपर पहुँचे- करीब नौ घंटे में! कई लोग यहाँ पहुँचने के बाद सीधे दर्शन के लिए चले जाते हैं। लेकिन हमने रात में ठहरने का फैसला किया। यात्रियों की सुविधा के लिए ट्रस्ट की तरफ से कम्बल दिए जाते हैं। इसके लिए कई स्टोर बनाए गए हैं जहाँ आप यात्रा पर्ची दिखाकर प्रति कम्बल सौ रुपए की अमानत राशि देकर अपनी जरूरत के अनुसार कम्बल ले सकते हैं। कम्बल वापस करने पर आपके पैसे वापस मिल जाते हैं। भीड़ होने की वजह से किसी छत के नीचे जगह मिलनी मुश्किल थी। रास्ते ही ऐसी खाली जगह बचे थे जिनके ऊपर छत थी। सो हमने भी अन्य लोगों की तरह रास्ते के किनारे ही कम्बल बिछा दिया। करीब तीन बजे सुबह हम उठे और शौचादि करके स्नान किया। करीब एक घंटे में हम तैयार हो गए। अपने कम्बल जमा कर दिए। यहाँ भी दर्शन के लिए समूह संख्या लेना आवश्यक है। दर्शन के लिए जाते समय कैमरा, पर्स, बेल्ट, पेन, थैले, किसी तरह की खाने पीने की कोई चीज, चप्पल आदि कुछ भी साथ ले जाना सख्त मना है। इन सब चीजों को सुरक्षित रखने हेतु यहाँ कई निःशुल्क क्लोक रूम बनाए गए हैं जिनका उपयोग आप कर सकते हैं। हम बिल्कुल ठीक समय पंक्ति में लग गए। दरअसल इस समय भीड़ कम होती है इस समय सीधे यहाँ पहुँचने वाले कम होते हैं और जो पहले पहुँच चुके होते हैं वे अलसा कर आराम कर रहे होते हैं। हमने निश्चिँत होकर ब्रह्म मुहुर्त में माताजी के दर्शन किए। इसके बाद सुविधा अनुसार दान आदि किया। नाश्ता किया। चाय पी। इसके बाद अगले गंतव्य की ओर निकले- भैरव नाथ के मंदिर के लिए। यह मंदिर माता के मंदिर से करीब ढाई किलोमीटर की दूरी पर है। ऐसी मान्यता है कि माता के दर्शन के बाद भैरव नाथ के दर्शन करने पर ही माता का दर्शन सफल होता है। यह थोड़ा कठिन है क्योंकि चढ़ाई कठिन है और यात्री थके होते हैं। माँ काफी थक गईं थी इसलिए हमने उनके लिए एक खच्चर कर लिया। यहाँ थोड़ी परेशानी है- खच्चर वाले मनमाना किराया माँगते हैं। हालाँकि इसके लिए कई काउंटर बने हैं लेकिन उनका कोई लाभ नहीं है। खैर हमने भैरव नाथ के दर्शन किए। इसके बाद हमने वहीँ बने जलपान गृह में अपनी पसंद के अनुसार खाना खाया और नीचे उतरना शुरू किया। इसके लिए पुनः भवन आने की जरूरत नहीं है। वहीँ से रास्ता है।

Monday, August 22, 2011

हमारी हरिद्वार एवं जम्मू की यात्रा- 2






हरिद्वार से जम्मू के लिए हम कुल सात लोग थे- छः बड़े और एक अनुष्का। शाम के करीब साढ़े पाँच बजे गाड़ी आई। आधे घंटे के अपने विराम के बाद गाड़ी चली। हम कुछ देर तक हरिद्वार को पीछे छूटते हुए देखते रहे उसके बाद खाने पीने का कार्यक्रम शुरू हुआ, हाँ पीने में सिर्फ पानी का ही प्रावधान था। भोजन का कार्यक्रम जल्दी इसलिए शुरू करना पड़ा क्योंकि हम जम्मू सुबह पाँच बजे पहुँचने वाले थे इसलिए उससे पहले नींद पूरी होना जरूरी था। थके थे इसलिए जब नींद खुली तो गाड़ी जम्मू स्टेशन पहुँचने वाली थी। हरिद्वार से जम्मू के लिए यह एक ही सीधी गाड़ी है- हेमकुंत एक्सप्रेस। इस गाड़ी का समय थोड़ा असुविधाजनक है- हरिद्वार में भी और जम्मू में भी। सुबह जब गाड़ी जम्मू पहुँची तो सब शौचादि जैसे नित्य क्रियाओं के बेचैन दिखाई दे रहे थे लेकिन सुबह पाँच बजे हम शौचालय कहाँ खोजेँ? मजबूर होकर लोगों को स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में ही अपना काम निपटाना पड़ा। हमने भी लोगों का अनुसरण किया। जम्मू आने का उद्देश्य था माँ वैष्णो देवी के दर्शन करना लेकिन उससे पहले स्नान आदि करने जैसे जरूरी काम निपटाने थे। जम्मू स्टेशन के ठीक बाहर दाहिनी ओर श्री माँ वैष्णो देवी श्राईन बोर्ड का 'वैष्णवी धाम' है जहाँ दर्शनार्थियोँ के ठहरने की व्यवस्था है। हम सबसे पहले वहीँ पहुँचे लेकिन हमें निराशा ही मिली। वहीँ चेक इन और चेक आउट समय सुबह नौ बजे है। मुझे यह समझ में नहीं आया कि देश के कोने कोने से आने वाले भक्त इस समय का ध्यान कैसे रख पाएँगे। और ऐसे में यह व्यवस्था उनकी सहायता और बीचौलियोँ से बचाव कैसे कर रही है। आखिर हमने सीधे कटरा जाने का निर्णय किया लेकिन सामान के जाने का एक ही रास्ता है- टैक्सी बुक करें। सो हमने किया। एक और बात- यदि आप टैक्सी स्टैंड जाएँगे तो पाँच आदमी के कम से कम साढ़े आठ सौ रुपए खर्च करने पड़ेंगे लेकिन बाहर से यही टैक्सी छः सौ रुपए में भी मिल जाएगी। किसी धोखा की संभावना नहीं है। हमने भी किया। रास्ते में ही जबरदस्त बारिश शुरू हो गई। ड्राइवर ने बताया कि पिछले तीन दिनों से भू स्खलन के कारण रास्ता बंद था, एक दिन पहले ही शुरू हुआ है। हम कटरा पहुँचे तो बारिश जारी थी। हमें मजबूर हो कर महँगे कमरे किराए पर लेने पड़े। नहा धोकर हमने खाना खाया। एक घंटे आराम किया। फिर हम निकलने को तैयार हुए- बारिश में ही। एक अच्छी बात यह है कि कटरा में खास बरसाती मिलते हैं जिन्हें पहन कर आप भीगे बगैर जा सकते हैं। कीमत सिर्फ दस रुपए। इसके अलावा एक सुविधा और भी है- आप होटल से चेक आउट करने के बाद भी उनके क्लोक रूम में अपना सामान रख सकते हैं, निःशुल्क। तो करीब दो बजे हम निकल पड़े माता के भवन की तरफ। यह करीब चौदह या पंद्रह किलोमीटर की यात्रा है। इसे आप अपनी सुविधानुसार पैदल या खच्चर की सहायता से पूरा कर सकते हैं। इसके अलावा पालकी और हैलीकॉप्टर की सुविधा भी है। लेकिन कीमत ज्यादा है कम से कम मेरे लिए। हमारे दल में तीन बुजुर्ग थे और एक बच्ची थी। तीन मझले आकार के थैले भी थे। लेकिन दल में उत्साह पूरा था इसलिए कोई परेशानी नहीं थी। हम पहले कुछ देर तेजी से फिर धीरे धीरे आगे बढ़ते रहे। जगह जगह जलपान आदि की सुविधा है। सुस्ताने के लिए बेँच लगी हैं। शौचालय आदि भी हैं। बारिश भी जैसे सिर्फ हमारी परीक्षा के लिए ही आई हो। जैसे ही हम होटल से निकले, थोड़ी देर बाद ही बंद हो गई।

Sunday, August 21, 2011

हमारी हरिद्वार और जम्मू की यात्रा- 1







पिछले कई महीनों से हम योजना बना रहे थे- मेरी बेटी के मुंडन संस्कार की। पहले यह फरवरी, 11 में ही होना था पर मेरे भाई की शादी की वजह से नहीं हो पाया। उसके बाद हमने अक्तूबर का कार्यक्रम बनाया- दशहरे के ठीक बाद का। इसका एक कारण तो यह था कि मुंडन हरिद्वार में शांतिकुंज में होना था, सो दशहरे की छुट्टियां काम में आ जातीं और दूसरा स्कूलों में छमाही इम्तहान होने से गाड़ियों में और पर्यटन स्थलों पर भीड़ कम होती है जिससे वाजिब कीमतों में उचित व्यवस्था हो जाती है। इस विचार के साथ हमने गाड़ियों (रेल) के टिकट भी बुक कर लिए। लेकिन यह दूसरा कारण ही हमारे सामने दूसरे रूप में अड़चन बन गया। मेरे छोटे भाई साहब जो पुणे में रहकर पढ़ाई कर रहे हैं उनके इम्तहान भी अक्तूबर में ही पड़ गए और मैं उन्हें छोड़कर यह कार्यक्रम करना नहीं चाहता था। अब हमारे सामने दो विकल्प थे- एक, या तो कार्यक्रम भादो (भाद्रपद) शुरू होने से पहले निपटा लें या दूसरा, इसे फरवरी तक टाला जाए क्योंकि अक्तूबर के बाद ठंढ बढ़ने लगती है। बात यही तय हुई कि टालने की बजाए अगस्त में ही निपट लिया जाए। यह सारा निर्णय जुलाई के पहले हफ्ते हुआ। समय बहुत कम था और तैयारियाँ काफी करनी थी। कुल मिलाकर पंद्रह से बीस लोगों को लेकर हरिद्वार की सैर करनी थी। हमारे उत्तर प्रदेश और बिहार की रिश्तेदारी भी काफी कठिन हो गई है। किसी को न बुलाओ तो समस्या और बुलाओ तो समस्या! कोई पुणे से, कोई बोकारो से, कोई दिल्ली से, कोई गुडगाँव से और कोई बलिया से! सबके टिकट बुक कराओ, उन्हें स्टेशन पर लेने जाओ आदि आदि। अपनी तैयारी अलग से। कार्यक्रम में एक और विस्तार यह हुआ कि रिश्तेदारोँ को विदा करने के बाद जम्मू, माँ वैष्णो देवी के दर्शन का निर्णय हुआ।
खैर आठ अगस्त को मैं, मेरी श्रीमतीजी, पिताजी, मेरे ससुरजी, मेरी सालीसाहिबा और साथ में अनुष्का- मेरी ढाई वर्ष की बेटी पटना से हरिद्वार के लिए निकले। बाकी लोगों के टिकट उनकी सुविधा के अनुसार उनके पास भेज दिए गए थे और वे सीधे हरिद्वार पहुँचने वाले थे। हमारी गाड़ी रात के नौ बजे थी। हम समय से स्टेशन पहुँच गए थे। स्टेशन का नाम मतलब भीड़ और शोर। उस पर गाड़ी एक घंटे देर से आ रही थी। हम इंतजार के अलावा कर भी क्या सकते थे? आखिर जब गाड़ी आई तो वह लगभग ढाई घंटे देर से चल रही थी और रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। लेकिन अभी तो शुरुआत हुई थी। सावन का महीना था और भोलेनाथ के दर्शन को निकले काँवड़ियोँ की भीड़ गाड़ी में भरी थी और वे सारी खाली सीटों पर कब्जा जमाए थे। उनसे सीट खाली कराना रात में एक कठिन काम साबित हुआ। कोई टिकट चेकर नहीं! पाँच में से चार सीटें तो उन्होंने खाली कर दीं- बुजुर्गों और महिलाओं का खयाल करके। इसके लिए मैं उनको धन्यवाद देना चाहूँगा। लेकिन मेरी सीट मुझे शेयर करनी पड़ी- मुगलसराय तक, लगभग तीन घंटे। बनारस में वे उतर गए। सुबह हमें ध्यान आया कि गाड़ी में रसोई यान (पैँट्री कार) नहीं है। गाड़ी सुपरफास्ट, रुकने का नाम नहीं ले रही थी। नाश्ता और खाना तो हमारे पास था लेकिन पानी के लिए क्या करें? भारतीय रेल का नियम- गाड़ी का स्टॉप नहीं है लेकिन गाड़ी रुकेगी- या तो स्टेशन के पहले या स्टेशन पर प्लेटफार्मोँ के बीच मेन लाइन पर लेकिन प्लेटफार्म पर नहीं। आखिर लखनऊ में हमने पानी लिया और नाश्ता किया। गाड़ी का हरिद्वार में समय शाम सवा चार बजे था लेकिन तीन घंटे विलम्ब के अनुसार हमने सात बजे के लगभग पहुँचने का अनुमान लगाया था अर्थात वो शाम बेकार! लेकिन भला हो रेल्वे का, गाड़ी ने पूरा समय कवर करते हुए हमें बिल्कुल ठीक समय पर हरिद्वार पहुँचा दिया। काफी दिन बाद सब एक दूसरे से मिले। काफी उत्साह का माहौल रहा। हमारी परंपराओं की एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सबका मिलना हो जाता है वरना आज के व्यस्त और नौकरीपेशा जीवन में कहाँ मिलना हो पाता है। खैर सब पहुँच गए थे और बातें करते हुए सब तैयार हुए और हम गंगाजी की आरती देखने हर की पौड़ी पहुँचे। लौट कर बस एक ही चीज जरूरी थी- खाना खाओ और बिस्तर पकड़ो। आखिर सब थके हुए थे। हम एक ट्रस्ट के आश्रम में रुके थे। लक्जरी होटल नहीं लेकिन काफी अच्छी सुविधा थी। लंगर के रूप में खाने के स्वाद का तो कहना ही क्या! अगले दिन सुबह मुंडन था। वैसे तो मुंडन का समय दस बजे से था लेकिन हम शांतिकुंज सुबह छः बजे ही पहुँच गए। वहाँ सामूहिक यज्ञ में सम्मिलित हुए। लगभग पच्चासी वर्ष से जल रहे अखंड दीपक के दर्शन किए। सबने नाश्ता वगैरह किया। उसके बाद हम हिमालय के मंदिर गए। ध्यान के लिए एक काफी अच्छी जगह है। दरअसल शांतिकुंज अखिल विश्व गायत्री परिवार का मुख्यालय है और साथ ही एक तीर्थ भी। हिंदू धर्म का एक जीता जागता रूप है। यहाँ वैज्ञानिक व्याख्या के साथ सारे संस्कार विधिवत कराए जाते हैं। करीब बारह बजे तक अनुष्का का मुंडन हो गया। उसके बाद हम गंगा पूजन के लिए पांडव घाट पहुँचे। हरिद्वार में गंगाजी की धार पटना के मुकाबले काफी ज्यादा रहती है, बारिश की वजह से यह और ज्यादा हो गई थी। हमने सावधानी से स्नान किया और पूजन किया। बारिश रुक रुक कर आ रही थी। उसी दिन शाम को कई लोगों को वापस निकलना था सो हम ज्यादा समय बर्बाद किए बिना वापस अपने कमरे में चले आए। अगले दिन हम बजे हुए लोग घूमने निकले। ऋषिकेश में राम झूला और लक्ष्मण झूला देखा लेकिन सबसे अच्छा प्राकृतिक सौंदर्य लगा जो दूर दूर तक दिखाई दे रहा था। बंदर तो मत पूछिए जहाँ देखो वहीँ। उसी दिन शाम को जम्मू के लिए हमारी गाड़ी थी सो लौटते हुए हम सामान लेकर सीधे स्टेशन पहुँच गए। गाड़ी फिर पौन घंटा देरी से!






Friday, August 5, 2011

भ्रष्टाचार की जड़ें- 2

ये घटना मेरे स्कूली शिक्षा के समय की है। हम सहपाठियोँ में कई मेरे गाँव के ही थे। हममें से कई वैसे तो अलग अलग स्कूलों में पढ़ते थे लेकिन स्कूल से लौटने के बाद साथ ही एक साथ ही खेलते थे।
उन दिनों हमारे गाँवों में सहकारी दुकानें थीं जिन्हें गाँव के लोग 'कोऑपरेटिव' भी कहते थे। इस दुकान से गाँववासियोँ को सस्ते दरों पर कपड़ा, शक्कर आदि मिलता था। मुझे याद है पिताजी हम दो भाइयों के लिए हमारे गाँव की दुकान से कपड़ा लाए थे जो काफी टिकाऊ था। हम सहपाठियोँ में से एक के पिताजी उस दुकान पर कार्यरत थे। इलाके के एक प्रभावशाली श्रीमंत के के यहाँ शादी थी सो उनके अतिथियों के सत्कार के लिए बनने वाले भोजन के लिए काफी मात्रा में शक्कर की आवश्यकता थी। मैं सिर्फ शक्कर की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि इसके अलावा उस दुकान में उनकी हैसियत के अनुसार और कुछ नहीं था। उनके वफादार चमचे (माफ करिएगा) अधिकारी ने गाँव के हिस्से की शक्कर उन श्रीमंत के हवाले कर देने का आदेश दे दिया। किंतु मेरे मित्र के पिताजी जो उस समय उस दुकान पर थे, ऐसा करने से मना कर दिया। किंतु उनकी ये ईमानदारी उनके लिए काफी महँगी पड़ी। दूसरे दिन उस दुकान पर औचक निरीक्षण हुआ! काफी बड़ी मात्रा में हेराफेरी पाई गई! उन्हें निलम्बित कर दिया गया और जाँच के आदेश दे दिए गए। काफी गहरा सदमा पहुँचा उन्हें। उनका वेतन उनके आमदनी का बड़ा हिस्सा था जो अब बंद हो चुका था। घर में तीन बच्चे बड़े हो रहे थे। उनका खर्च बढ़ रहा था। जाँच चल रही थी और उन्होंने अदालत की शरण भी ली। किंतु सदमे की मार और जिंदगी की लड़ाई ने उन्हें ज्यादा दिन जीने नहीं दिया। कहते हैं शौच के समय आदमी सबसे गहराई से सोचता है, शौच करते समय ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसे। परिवार पर तो पहले जैसे मुसीबतोँ का पहाड़ टूट पड़ा। घर के खर्च जुटाएँ या अदालत का। उत्तर प्रदेश और बिहार में लड़की की शादी भी एक मुसीबत ही कही जा सकती है। बच्चों की पढ़ाई छूट गई। उन्हें घर के खर्च के लिए पहले खेतों में काम करना पड़ा। आखिर मुकदमे में मेरे मित्र की जीत हुई किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पढ़ाई बीच में छूट जाने के बाद उन्हें पंजाब जा कर मजदूरी करनी पड़ी। हमारे सहपाठियोँ में आज एक भी बेरोजगार नहीं है किंतु इस हादसे ने दो होनहार बच्चों को जबरन मजदूर बना दिया। मुझे खुशी है कि आज मेरे मित्र अपने मेहनत से अपनी गाड़ी फिर से लाइन पर ला पाए हैं। मेरे सहपाठी मित्र आज हीरो साइकिल में कार्यरत हैं।
ये एक सच्ची घटना है जिसने हमारे युवा होते मन पर गहरा प्रभाव डाला।

Thursday, August 4, 2011

सरकार के बजाए अपनी सुध लें

बिहार में और विशेषतः पटना में लोग अपनी जिम्मेदारियाँ जाने बगैर हर बात के लिए सरकार को दोष देने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन यदि मेट्रो से पटना की तुलना करना चाहते हैं तो नागरिक उत्तरदायित्वोँ को जानना एवं सीखना होगा। क्या हमने कोनोँ में थूकना बंद किया है? नहीं। क्या हमने सार्वजनिक जगहों को पेशाबघर समझना बंद किया है? नहीं। क्या हमने ऐसा करने वालों को टोकना शुरू किया है, नहीं। हम सड़क पर, घर के पीछे और हर ऐसी खाली जगह पर जहाँ कोई देख न रहा हो, कचरा फैलाते हैं और सफाई की बात करते हैं। पानी को बचाना नहीं जानते और पानी की कमी का रोना रोते हैं। राजधानी में रह कर भी बिजली चोरी को अपना अधिकार मानते हैं फिर बिजली के लिए सरकार को दोष देते हैं। महाराष्ट्र जैसे प्रदेश में भी जो बिजली उत्पादन में देश में अव्वल है, शून्य विद्युत कटौती उन्हीं शहरों को मिल रही है जिनका बिल भुगतान का औसत शत प्रतिशत या उसके बहुत करीब है। हमलोग मुम्बई, चेन्नई, बंगलोर, हैदराबाद आदि शहरों में जाते हैं लेकिन क्या हम पंक्ति में रहकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करना सीख पाए हैं? नहीं, लेकिन हम व्यवस्था की बात करते हैं। सरकार को जितना करना चाहिए उससे अधिक कर रही है। अब यदि हम बिहार को विकसित देखना चाहते हैं तो जरूरी है कि हम अपने हिस्से का योगदान शुरू करें। 'अधिकारों का वह हकदार जिसको कर्तव्यों का ज्ञान'। और यदि नहीं तो जितना जी चाहे चिल्लाते रहो, जुगाड़ लगा कर लाइन के बाहर से अपना काम कराते रहो, आठ- दस घंटों की बिजली में इन्वर्टर की बैटरी चार्ज करते रहो, 'साइड इंकम' से अपना बैंक बैलेँस बढ़ाते रहो, दहेज देते और लेते रहो। राज और उद्धव ठाकरे जैसे लोगों को बिहार को बदनाम करते रहने दो- आपको क्या अंतर पड़ता है? लेकिन सड़क, बिजली, सफाई और व्यवस्था की बात कृपया मत करो।

Tuesday, August 2, 2011

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती...

"लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फ..."