Tuesday, March 8, 2011

वो पल नहीं भूला हूँ

वो 2001 के जून का महीना था। उस समय मैं अपनी संक्षिप्त तकनीकी शिक्षा
पूरी करके गुडगाँव की एक कंपनी में अस्थाई तौर पर कार्य करता था। कार्य
करते लगभग तीन महीने ही हुए थे। गुडगाँव शहर से करीब आठ किलोमीटर दूर एक
छोटा बाजार है मानेसर, उसके थोड़ा पहले एक गाँव में रहता था। अपनी छोटी
जरूरतों को छोड़कर बाकी के लिए गुडगाँव जाना पड़ता था। वेतन मिला था और मैं
कुछ सामान जिसमें; 'रोजगार समाचार' लेना प्रमुख था, के लिए गुडगाँव गया
था।
गुडगाँव जाने के लिए टेँपो मिलता था लेकिन वापसी के लिए टेँपो के बजाय हम
जीप पकड़ना पसंद करते थे। सो मैं एक जीप में गया। जीप लम्बी दूरी के लिए
चलती थी इसलिए हमें लेने में थोड़ी आनाकानी करते थे। खैर जीप खाली थी
इसलिए मुझे जगह मिल गई। मैं अपनी पसंद से आगे की सीट पर बैठ गया। कुछ देर
बाद एक यात्री आया जो आगे की सीट पर ही बैठना चाहता था सो जीप वाले ने
मुझे बीच की सीट पर बैठने को कहा। मैं भी चुपचाप बीच में बैठ गया। कुछ
देर बाद एक और यात्री आया और पीछे की सीट पर बैठने से मना कर दिया सो जीप
वाले ने फिर मुझे पीछे की सीट पर बैठ जाने को कहा। मुझे थोड़ा गुस्सा तो
आया लेकिन मैंने कुछ बोले बगैर पीछे जाकर बैठ गया- मजबूरी थी।
जब जीप चली तो उसमें लगभग नौ या दस लोग थे, पीछे की तरफ मेरे अलावा एक और
यात्री था- मैं बाएँ तरफ वो दाईँ तरफ। मेरी एक आदत थी या अब भी है, कि
गाड़ी चलते समय यदि संभव हुआ तो मैं सामने सड़क पर एवं स्पीडोमीटर पर नजर रखता हूँ;
उस दिन भी मैं यही कर रहा था। सो मैं देख रहा था कि गाड़ी लगभग अस्सी
किलोमीटर प्रति घंटे की चाल से चल रही थी। शहर अभी खतम भी नहीं हुआ था
लेकिन कुछ दूर का रोड डिवाइडर खतम हो गया था। चालक गाड़ी चलाने के साथ ही
अपने बगल के यात्री से बात भी कर रहा था। तभी सामने से आता एक ट्रक जो
आगे की गाड़ी से ओवरटेक कर रहा था दिखाई दिया। जब तक जीप का चालक कुछ समझ
कर जगह दे पाता ट्रक ने पूरी गति से जीप के दाहिने तरफ बीच में टक्कर मार
दी। यह पूरी घटना एक सेकंड के चौथाई भाग में घटी लेकिन मैंने उसे घटित
होते देखा। इसके बाद का शायद आप कुछ अंदाज लगा सकते हैं। जीप दो पूरी तरह
चित्त! मुझे चोट आयी थी लेकिन मुझे उसका अंदाजा नहीं था, मैं खुद को
संभालते हुए जीप के बाहर आया। इसके बाद मैंने जो देखा उस पर मेरी आँखो को
विश्वास नहीं हुआ। अब तक मैंने किसी को मरते नहीं देखा था- किसी जानवर को
भी नहीं, लेकिन वहाँ मैंने न सिर्फ देखा बल्कि उन्हें महसूस भी किया। दो
यात्री मेरे सामने मर गए और वो और कोई नहीं, वही दो थे जो मेरी जगह पर
बैठ गए थे। शेष जो थे उनमें एक भी खुद से उठने में सक्षम नहीं था। मैं
हतबुद्धि खड़ा था। काफी भीड़ जमा हो गई थी। लेकिन वे सब केवल दर्शक मात्र
थे। उनमें से ही एक ने मुझे मेरे घाव की तरफ इशारे से बताया। मैंने सिर
के पीछे हाथ लगाया तो मेरा हाथ खून से रंग गया। एक स्कूटर वाले से
अस्पताल तक लिफ्ट देने को कहा तो वह अपनी गाड़ी ले कर भाग गया। दूसरा आगे
आया लेकिन बोला मैं- अस्पताल के दरवाजे तक ही छोड़ूँगा। मुझे और क्या
चाहिए था। फिर मैं अस्पताल पहुँचा। वहाँ थोड़ी औपचारिकता के बाद मेरा इलाज
शुरू हुआ। तब तक पुलिस की सहायता से और भी घायल आने लगे।
अस्पताल से प्राथमिक चिकित्सा के बाद छुट्टी मिल गई- सिर के पिछले हिस्से
में आठ टाँके आए थे। अस्पताल से मैं पैदल ही निकल लिया और घटना स्थल तक
पहुँच गया। मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि मौत दो बार मुझ तक आते आते रह
कैसे गई? आज भी मैं यह नहीं समझ पाया हूँ कि यहाँ 'जाको राखे साईयाँ';
वाली बात सही हुई या 'जितनी चाबी भरी राम ने'; वाली।
एक और विकल्प है लेकिन वह कमजोर है। मैं एक संस्था से जुड़ा हूँ और नियमित
अपनी सहयोग राशि वेतन मिलने पर भेज दिया करता था। दुर्घटना वाले दिन ही
उसकी एक रसीद मुझे मिली थी और मेरे जेब में थी। क्या मैं उस कारण बच गया?
यह पक्ष कमजोर इसलिए है कि इसमें मुझे बचा लेना हो सकता है लेकिन मेरी
जगह किसी और को मार देना तो नहीं ही हो सकता।
कुछ भी हो लेकिन अगर मैं मर जाता तो पुलिस के पास मुझे एक अनजान व्यक्ति
की तरह निपटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता क्योंकि मेरे पास पहचान का
कोई साधन ही नहीं था।
एक अफसोस भी रहता है कि मैं अपनी चोट में घबरा कर दूसरों की कोई सहायता
नहीं कर पाया हालाँकि मैं हिम्मत से काम ले के ये कर सकता था।
आज उस घटना को लगभग दस साल बीत चुके हैं लेकिन अब भी मेरे जेहन में वो
घटना जस की तस है, चोट का एक टाँका भी क्योंकि जिस डॉक्टर ने वे काटे
उसने गलती से एक टाँका सिर में ही छोड़ दिया। अब तो उस पर चमड़ी आ चुकी है।
इस घटना से एक बात सीखी- कहीं भी चलो तो कम से कम अपने पहचान का कोई साधन
ले के अवश्य चले।

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