Sunday, August 21, 2011

हमारी हरिद्वार और जम्मू की यात्रा- 1







पिछले कई महीनों से हम योजना बना रहे थे- मेरी बेटी के मुंडन संस्कार की। पहले यह फरवरी, 11 में ही होना था पर मेरे भाई की शादी की वजह से नहीं हो पाया। उसके बाद हमने अक्तूबर का कार्यक्रम बनाया- दशहरे के ठीक बाद का। इसका एक कारण तो यह था कि मुंडन हरिद्वार में शांतिकुंज में होना था, सो दशहरे की छुट्टियां काम में आ जातीं और दूसरा स्कूलों में छमाही इम्तहान होने से गाड़ियों में और पर्यटन स्थलों पर भीड़ कम होती है जिससे वाजिब कीमतों में उचित व्यवस्था हो जाती है। इस विचार के साथ हमने गाड़ियों (रेल) के टिकट भी बुक कर लिए। लेकिन यह दूसरा कारण ही हमारे सामने दूसरे रूप में अड़चन बन गया। मेरे छोटे भाई साहब जो पुणे में रहकर पढ़ाई कर रहे हैं उनके इम्तहान भी अक्तूबर में ही पड़ गए और मैं उन्हें छोड़कर यह कार्यक्रम करना नहीं चाहता था। अब हमारे सामने दो विकल्प थे- एक, या तो कार्यक्रम भादो (भाद्रपद) शुरू होने से पहले निपटा लें या दूसरा, इसे फरवरी तक टाला जाए क्योंकि अक्तूबर के बाद ठंढ बढ़ने लगती है। बात यही तय हुई कि टालने की बजाए अगस्त में ही निपट लिया जाए। यह सारा निर्णय जुलाई के पहले हफ्ते हुआ। समय बहुत कम था और तैयारियाँ काफी करनी थी। कुल मिलाकर पंद्रह से बीस लोगों को लेकर हरिद्वार की सैर करनी थी। हमारे उत्तर प्रदेश और बिहार की रिश्तेदारी भी काफी कठिन हो गई है। किसी को न बुलाओ तो समस्या और बुलाओ तो समस्या! कोई पुणे से, कोई बोकारो से, कोई दिल्ली से, कोई गुडगाँव से और कोई बलिया से! सबके टिकट बुक कराओ, उन्हें स्टेशन पर लेने जाओ आदि आदि। अपनी तैयारी अलग से। कार्यक्रम में एक और विस्तार यह हुआ कि रिश्तेदारोँ को विदा करने के बाद जम्मू, माँ वैष्णो देवी के दर्शन का निर्णय हुआ।
खैर आठ अगस्त को मैं, मेरी श्रीमतीजी, पिताजी, मेरे ससुरजी, मेरी सालीसाहिबा और साथ में अनुष्का- मेरी ढाई वर्ष की बेटी पटना से हरिद्वार के लिए निकले। बाकी लोगों के टिकट उनकी सुविधा के अनुसार उनके पास भेज दिए गए थे और वे सीधे हरिद्वार पहुँचने वाले थे। हमारी गाड़ी रात के नौ बजे थी। हम समय से स्टेशन पहुँच गए थे। स्टेशन का नाम मतलब भीड़ और शोर। उस पर गाड़ी एक घंटे देर से आ रही थी। हम इंतजार के अलावा कर भी क्या सकते थे? आखिर जब गाड़ी आई तो वह लगभग ढाई घंटे देर से चल रही थी और रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। लेकिन अभी तो शुरुआत हुई थी। सावन का महीना था और भोलेनाथ के दर्शन को निकले काँवड़ियोँ की भीड़ गाड़ी में भरी थी और वे सारी खाली सीटों पर कब्जा जमाए थे। उनसे सीट खाली कराना रात में एक कठिन काम साबित हुआ। कोई टिकट चेकर नहीं! पाँच में से चार सीटें तो उन्होंने खाली कर दीं- बुजुर्गों और महिलाओं का खयाल करके। इसके लिए मैं उनको धन्यवाद देना चाहूँगा। लेकिन मेरी सीट मुझे शेयर करनी पड़ी- मुगलसराय तक, लगभग तीन घंटे। बनारस में वे उतर गए। सुबह हमें ध्यान आया कि गाड़ी में रसोई यान (पैँट्री कार) नहीं है। गाड़ी सुपरफास्ट, रुकने का नाम नहीं ले रही थी। नाश्ता और खाना तो हमारे पास था लेकिन पानी के लिए क्या करें? भारतीय रेल का नियम- गाड़ी का स्टॉप नहीं है लेकिन गाड़ी रुकेगी- या तो स्टेशन के पहले या स्टेशन पर प्लेटफार्मोँ के बीच मेन लाइन पर लेकिन प्लेटफार्म पर नहीं। आखिर लखनऊ में हमने पानी लिया और नाश्ता किया। गाड़ी का हरिद्वार में समय शाम सवा चार बजे था लेकिन तीन घंटे विलम्ब के अनुसार हमने सात बजे के लगभग पहुँचने का अनुमान लगाया था अर्थात वो शाम बेकार! लेकिन भला हो रेल्वे का, गाड़ी ने पूरा समय कवर करते हुए हमें बिल्कुल ठीक समय पर हरिद्वार पहुँचा दिया। काफी दिन बाद सब एक दूसरे से मिले। काफी उत्साह का माहौल रहा। हमारी परंपराओं की एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सबका मिलना हो जाता है वरना आज के व्यस्त और नौकरीपेशा जीवन में कहाँ मिलना हो पाता है। खैर सब पहुँच गए थे और बातें करते हुए सब तैयार हुए और हम गंगाजी की आरती देखने हर की पौड़ी पहुँचे। लौट कर बस एक ही चीज जरूरी थी- खाना खाओ और बिस्तर पकड़ो। आखिर सब थके हुए थे। हम एक ट्रस्ट के आश्रम में रुके थे। लक्जरी होटल नहीं लेकिन काफी अच्छी सुविधा थी। लंगर के रूप में खाने के स्वाद का तो कहना ही क्या! अगले दिन सुबह मुंडन था। वैसे तो मुंडन का समय दस बजे से था लेकिन हम शांतिकुंज सुबह छः बजे ही पहुँच गए। वहाँ सामूहिक यज्ञ में सम्मिलित हुए। लगभग पच्चासी वर्ष से जल रहे अखंड दीपक के दर्शन किए। सबने नाश्ता वगैरह किया। उसके बाद हम हिमालय के मंदिर गए। ध्यान के लिए एक काफी अच्छी जगह है। दरअसल शांतिकुंज अखिल विश्व गायत्री परिवार का मुख्यालय है और साथ ही एक तीर्थ भी। हिंदू धर्म का एक जीता जागता रूप है। यहाँ वैज्ञानिक व्याख्या के साथ सारे संस्कार विधिवत कराए जाते हैं। करीब बारह बजे तक अनुष्का का मुंडन हो गया। उसके बाद हम गंगा पूजन के लिए पांडव घाट पहुँचे। हरिद्वार में गंगाजी की धार पटना के मुकाबले काफी ज्यादा रहती है, बारिश की वजह से यह और ज्यादा हो गई थी। हमने सावधानी से स्नान किया और पूजन किया। बारिश रुक रुक कर आ रही थी। उसी दिन शाम को कई लोगों को वापस निकलना था सो हम ज्यादा समय बर्बाद किए बिना वापस अपने कमरे में चले आए। अगले दिन हम बजे हुए लोग घूमने निकले। ऋषिकेश में राम झूला और लक्ष्मण झूला देखा लेकिन सबसे अच्छा प्राकृतिक सौंदर्य लगा जो दूर दूर तक दिखाई दे रहा था। बंदर तो मत पूछिए जहाँ देखो वहीँ। उसी दिन शाम को जम्मू के लिए हमारी गाड़ी थी सो लौटते हुए हम सामान लेकर सीधे स्टेशन पहुँच गए। गाड़ी फिर पौन घंटा देरी से!