Sunday, August 28, 2011

हमारी हरिद्वार एवं जम्मू की यात्रा- 3

दो वर्ष से पाँच वर्ष के बच्चों को संभालना बच्चों के मामले में शायद सबसे कठिन काम है। वे न तो एकदम छोटे बच्चों जैसे हर बात को मानने को तैयार होते हैं न बड़े बच्चों जैसे समझदार होते हैं। हर बात में अत्यंत उत्सुक और हर चीज को स्वयं आजमाने को तैयार! न तो गोद में चलने को तैयार न ज्यादा देर तक पैदल चलने में सक्षम! इन बच्चों की इसी प्रवृत्ति के कारण अत्यंत सावधानी से इनकी देखभाल करनी पड़ती है। इस मामले में हम भी अपवाद नहीं थे। अनुष्का के लिए वैसे तो वैष्णो देवी की यह दूसरी यात्रा थी पर पहली बार वह सिर्फ सात माह की थी। उस समय का एक अलग अनुभव है जिसे अलग लिखना ही उचित होगा। इस बार की स्थिति बिलकुल अलग थी। भीड़ में बच्चों के गुम होने का अंदेशा रहता है। पैदल चलते समय ठोकर खा कर चोटिल होने की संभावनाएँ रहती हैं। यात्रा के दौरान बार बार वातावरण बदलने से भी उनके बीमार पड़ने की संभावना रहती है। खान पान की एक तो फर्माईशेँ और नियंत्रण करना भी जरूरी होता है। सब मिला कर काफी सावधानी रखनी पड़ती है और कार्य काफी कठिन है। अनुष्का के लिए पिठ्ठू हम दो लोग थे- मैं और मेरे छोटे भाई आदित्य। सामान हमने सिर्फ जरूरत का ही साथ लिया था लेकिन बारिश को देखते हुए अतिरिक्त कपड़े रखना आवश्यक था और इस वजह से भार भी बढ़ना ही था। उसे हम सब ने मिलकर बाँट लिया था लेकिन उसका भी एक बड़ा भाग हमारे ही पास था। आपको एक और बात बता दूँ- कटरा से आगे बढ़ने से पहले श्राईन बोर्ड के कार्यालय से एक यात्रा पर्ची लेना आवश्यक है। यह एक तरह से पंजीकरण है जिससे यात्रियों का हिसाब रखना संभव हो पाता है। इसके लिए दल का कोई भी एक सदस्य जा कर अपने दल का विवरण बता कर पर्ची ले सकता है। यह पर्ची साथ रखना आवश्यक है। कटरा से भवन तक के करीब चौदह किलोमीटर के दौरान कई चेक पोस्ट हैं जहाँ सभी यात्रियों की उनके सामान के साथ तलाशी होती है। यह यात्रियों की सुरक्षा के जरूरी भी है। मुख्य प्रवेश द्वार के बाद बाणगंगा पहला चेक पोस्ट है। यह करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर है। यात्रा पर्ची लेने के बाद छः घंटे के भीतर इस चेक पोस्ट को पार करना यात्रियों के लिए आवश्यक है।
यात्रा में शुरू के तीन चार किलोमीटर थोड़े ज्यादा थकाने वाले होते हैं उसके बाद शरीर अपने को अनुकूलित कर लेता है। मुझे प्रसन्नता होती है अपने माँ पिताजी के स्वास्थ्य को देखकर। मेरे पिताजी की आयु अभी 68 वर्ष है जबकि माँ की आयु 62 वर्ष है लेकिन वे अपने बगल में चलने वाले कई युवाओं के लिए भी मिसाल थे। वैसे वे भी अपवाद नहीं थे- आपको अनेकोँ बुजुर्ग व्यक्ति मिल जाएँगे। करीब छः किलोमीटर आगे अधकुँवारी का मंदिर है। यह एक गुफा में है। यदि आपको यहाँ दर्शन करने हैं तो वहीँ काउंटर से एक और पर्ची लेनी होती है जिस पर आपका समूह क्रमांक लिखा होता है जिसके अनुसार आपको गुफा में प्रवेश की अनुमति मिलती है। एक समूह में पचास लोग होते हैं। यदि आपके पास समय कम है तो आप सीधे माता के भवन की तरफ आगे बढ़ सकते हैं। हमारे दल में बच्चे और बुजुर्ग होने की वजह से हमने भी आगे बढ़ने का ही फैसला किया। दरअसल हमें समूह संख्या 267 मिली थी जबकि अभी 145वें समूह की बारी थी जो शाम आठ बजे प्रवेश करने वाला था। इसका अर्थ यह था कि हमें अपनी बारी के लिए शायद रात भर खुले आसमान के नीचे बैठना पड़ता। यात्रा का दूसरा सबसे कठिन भाग अंतिम तीन चार किलोमीटर का होता है। तब तक अधिकांश लोग थक चुके होते हैं और साथ ही मानसिक रूप से भी पहुँचने की जल्दबाजी होती है। इस भाग में चढ़ाई भी थोड़ी कठिन है। शायद इसी बात को अनुभव करके इस भाग में पहले हर आधे किलोमीटर पर हर फिर ढाई सौ मीटर पर संकेतक लगे हैं जो यात्रियों को हिम्मत देते हैं। हम करीब रात के साढ़े दस बजे ऊपर पहुँचे- करीब नौ घंटे में! कई लोग यहाँ पहुँचने के बाद सीधे दर्शन के लिए चले जाते हैं। लेकिन हमने रात में ठहरने का फैसला किया। यात्रियों की सुविधा के लिए ट्रस्ट की तरफ से कम्बल दिए जाते हैं। इसके लिए कई स्टोर बनाए गए हैं जहाँ आप यात्रा पर्ची दिखाकर प्रति कम्बल सौ रुपए की अमानत राशि देकर अपनी जरूरत के अनुसार कम्बल ले सकते हैं। कम्बल वापस करने पर आपके पैसे वापस मिल जाते हैं। भीड़ होने की वजह से किसी छत के नीचे जगह मिलनी मुश्किल थी। रास्ते ही ऐसी खाली जगह बचे थे जिनके ऊपर छत थी। सो हमने भी अन्य लोगों की तरह रास्ते के किनारे ही कम्बल बिछा दिया। करीब तीन बजे सुबह हम उठे और शौचादि करके स्नान किया। करीब एक घंटे में हम तैयार हो गए। अपने कम्बल जमा कर दिए। यहाँ भी दर्शन के लिए समूह संख्या लेना आवश्यक है। दर्शन के लिए जाते समय कैमरा, पर्स, बेल्ट, पेन, थैले, किसी तरह की खाने पीने की कोई चीज, चप्पल आदि कुछ भी साथ ले जाना सख्त मना है। इन सब चीजों को सुरक्षित रखने हेतु यहाँ कई निःशुल्क क्लोक रूम बनाए गए हैं जिनका उपयोग आप कर सकते हैं। हम बिल्कुल ठीक समय पंक्ति में लग गए। दरअसल इस समय भीड़ कम होती है इस समय सीधे यहाँ पहुँचने वाले कम होते हैं और जो पहले पहुँच चुके होते हैं वे अलसा कर आराम कर रहे होते हैं। हमने निश्चिँत होकर ब्रह्म मुहुर्त में माताजी के दर्शन किए। इसके बाद सुविधा अनुसार दान आदि किया। नाश्ता किया। चाय पी। इसके बाद अगले गंतव्य की ओर निकले- भैरव नाथ के मंदिर के लिए। यह मंदिर माता के मंदिर से करीब ढाई किलोमीटर की दूरी पर है। ऐसी मान्यता है कि माता के दर्शन के बाद भैरव नाथ के दर्शन करने पर ही माता का दर्शन सफल होता है। यह थोड़ा कठिन है क्योंकि चढ़ाई कठिन है और यात्री थके होते हैं। माँ काफी थक गईं थी इसलिए हमने उनके लिए एक खच्चर कर लिया। यहाँ थोड़ी परेशानी है- खच्चर वाले मनमाना किराया माँगते हैं। हालाँकि इसके लिए कई काउंटर बने हैं लेकिन उनका कोई लाभ नहीं है। खैर हमने भैरव नाथ के दर्शन किए। इसके बाद हमने वहीँ बने जलपान गृह में अपनी पसंद के अनुसार खाना खाया और नीचे उतरना शुरू किया। इसके लिए पुनः भवन आने की जरूरत नहीं है। वहीँ से रास्ता है।

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