Wednesday, August 31, 2011

हमारी हरिद्वार एवं जम्मू की यात्रा- 4

भैरव नाथ के मंदिर से कटरा की तरफ उतरने पर ढलान काफी तेज है और यात्री भी थके होते हैं। पैरों के थके होने से ढलान पर गति को नियंत्रित कर पाना भी कठिन होता है और ढलान के साथ तेज उतरना भी। माँ, पिताजी और ससुरजी तीनों ही काफी थक चुके थे। सुबह नहाने से हमारे पास कुछ गीले कपड़े थे और साथ में प्रसाद के कुछ थैले भी। दरअसल जम्मू के लिए निकलते समय कुछ मित्रों ने प्रसाद के लिए पैसे दिए थे और उनका प्रसाद भी हमारे साथ था। इन सब से हमारा सामान पहले से अधिक भारी हो गया था और इसका बड़ा भाग मेरे छोटे भाई साहब आदित्य के कंधों पर था। अनुष्का को लेकर चलते हुए मेरे कंधे भी जवाब दे रहे थे। इसलिए हमें चलने में काफी मेहनत करनी पड़ रही थी। पर मेरे पिताजी और ससुरजी मेरी माँ और पत्नी प्रीति की धीमी चाल के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहे थे। वे थोड़ी दूर आगे निकल जाते और फिर हमारे पहुँचने की प्रतीक्षा करते। अधकुँवारी से कुछ दूर पहले रुक कर पिताजी और ससुरजी हमारा इंतजार कर रहे थे और चाय भी पी रहे थे। जब हम पहुँचे तो उनकी चाय खतम हो रही थी इसलिए वे आगे बढ़ गए और हम रुक कर चाय पीने लगे। आदित्य को भी धीमे चलने से भार ज्यादा महसूस हो रहा था सो वे आगे बढ़ना चाहते थे। इसलिए हमने उन्हें भी यह कहकर जाने दिया कि जब थक जाएँ तो वहीँ रुक कर इंतजार करें।
हमने चाय पी और फिर आगे बढ़े। यहाँ से एक समस्या शुरू हुई लेकिन हमें इसका आभास नहीं हुआ। अब हम दो दलों में बँट गए थे- पहले दल में मेरे पिताजी, ससुरजी और आदित्य थे और दूसरे दल में मैं, मेरी माँ और प्रीति मेरी पत्नी थे। वो आगे चल रहे थे और हम थोड़ा पीछे लेकिन हमारी गति कम होने से दोनों दलों के बीच दूरी बढ़ती जा रही थी। हम अधकुँवारी पहुँचे थोड़ा रुके और फिर आगे बढ़े। हमें थोड़ा आश्चर्य हो रहा था कि दूसरा दल यहाँ हमारे लिए रुका नहीं और सीधे आगे बढ़ गया। खैर कछुए की धीमी रफ्तार से चलकर हम जब नीचे मुख्य प्रवेश द्वार पर पहुँचे तो शाम के पाँच बज रहे थे। हमने अपने दूसरे दल के लोगों को तलाशने की कोशिश की लेकिन वहाँ कोई नहीं दिखा तो हम बाहर निकल आए क्योंकि बाहर ही प्रायः लोग अपने पीछे से आते साथियों की प्रतीक्षा करते हैं। लेकिन आश्चर्य यहाँ भी कोई नहीं था। अब हम थोड़े परेशान भी थे और थोड़ी खीझ भी आ रही थी आखिर कहाँ जा कर बैठे हैं यह लोग। मैं अपने दल को छोड़कर उनकी तलाश में पीछे भी नहीं जा सकता था। हमने करीब पौन घंटा इंतजार किया कि शायद कहीं पीछे ही बैठे होंगे तो आ जाएँगे। जम्मू में एक और समस्या है- वहाँ सिर्फ पोस्ट पेड मोबाइल कनेक्शन ही चालू रहते हैं, प्री पेड कोई भी कनेक्शन नहीं। हमारे पास सिर्फ एक ही एक्टिव मोबाइल था जो मेरे पास था बाकी सभी के मोबाइल बंद थे। इस वजह से भी अब हमें काफी परेशानी थी। तभी आदित्य ने एक पे फोन से मुझे फोन किया तब हम कुछ आश्वस्त हुए। लेकिन अभी तो चौंकने का समय था। आदित्य बाहर आए तो वे अकेले थे, पिताजी और मेरे ससुरजी उनके साथ नहीं थे! आदित्य ने बताया कि वे उसे अधकुँवारी से ही नहीं मिले। अब एक ही अनुमान शेष था और हमारे लिए संभावना भी। हमें विश्वास था कि अवश्य पिताजी थके होने के कारण मेरे ससुरजी को साथ लेकर होटल चले गए होंगे क्योंकि इस दल के साथ मैं और आदित्य थे। हमने करीब बीस मिनट प्रतीक्षा करने के बाद होटल चलने का निश्चय किया। मन में एक ही बात आ रही थी कि काश वे दोनों लोग होटल पहुँच गए हों। लेकिन जब हम होटल पहुँचे तो पता चला कि वहाँ पिताजी नहीं पहुँचे हैं। अब परेशानी चिंता का सबब बन गई थी। हमने सबसे पहले एक कमरा बुक किया ताकि माँ और प्रीति को वहाँ छोड़ा जा सके। फिर हम वापस तीन किलोमीटर पीछे चलकर बाणगंगा गए। फिर हमने उद्घोषणा कक्ष में मिल कर पिताजी के लिए संदेश कहलवाया लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। फिर हमने मुख्य द्वार पर सुरक्षा कर्मियों से बात की और उन्हें खोजने अंदर गए। मैंने आदित्य को उद्घोषणा कक्ष के पास ही बैठा दिया ताकि संदेश सुनकर यदि पिताजी वहाँ आएँ तो मिल सकें। मैं पीछे चलता हुआ करीब बाणगंगा पहुँच गया लेकिन वे नहीं मिले। मेरी परेशानी बढ़ती जा रही थी। रात हो रही थी, यह लोग मिल नहीं रहे थे और अगली सुबह माँ और आदित्य की गाड़ी थी- पहले दिल्ली और बाद में वहाँ से पुणे के लिए। तभी मेरे ससुरजी का फोन आया जो उन्होंने होटल से किया था। मेरी तो जैसे जान में जान आ गई हो। लेकिन जब परेशानी आती है तो इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ती। उन्होंने बताया कि पिताजी काफी नीचे तक साथ आए थे लेकिन उसके बाद भीड़ में वे अलग हो गए थे। लेकिन उन्होंने बताया था कि वे बाणगंगा से आगे तक साथ में थे। इसलिए मैं फिर वापस उन्हें खोजता हुआ नीचे आने लगा। मुख्य द्वार पर आकर आदित्य से मिला। तभी मुख्य द्वार के पास ही पिताजी दिखाई दिए। अभी तक न जाने कितने संस्करणोँ में अनगिनत शंकाएँ आ रही थी वे सब जैसे एक साथ विलीन हो गईं। हम पिताजी को लेकर होटल पर आए, ससुरजी को साथ लिया और कमरे पर पहुँचे तब करीब साढ़े आठ बजे थे। दरअसल हुआ यह था कि आदित्य पिताजी और ससुरजी से शुरू से ही अलग हो गया था। उसे लगा था कि वे पीछे ही चल रहे हैं लेकिन भीड़ में वे अलग हो गए थे। इसके बाद पिताजी और ससुरजी अधकुँवारी में रास्ते से हटकर एक बेँच पर बैठकर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे लेकिन न हम उन्हें देख पाए न वे हमें जबकि हम भी वहीँ आगे कुछ देर बैठे थे। आदित्य सीधे बाणगंगा आए थे और रास्ते से हटकर एक किनारे बैठ कर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे और बैठे बैठे सो गए थे। बाणगंगा के आगे आकर पिताजी और ससुरजी अलग हो गए थे। ससुरजी को लगा कि पिताजी आगे आ गए हैं और पिताजी को लगा कि ससुरजी पीछे ही हैं।
सुबह नौ बजे माँ की गाड़ी थी इसलिए समय बहुत कम बचा था और पैकिँग आदि बहुत काम बचे थे। हम फटाफट क्लोक रूम से सामान लेकर आए, खाना खाया और पैकिँग शुरू की। मैं पैरों में दर्द को कम करने की एक दवाई ले आया जिसे लगाने के बाद थोड़ा आराम मिला। पैकिँग खतम होने तक करीब ग्यारह बज चुके थे।

1 comment:

  1. अच्छा यात्रा वृतांत लिखा है

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