भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्वों में से एक लोकसभा आम चुनाव का २०१४ का संस्करण अपने अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ रहा है। इस संस्करण की कई बातें काफी समय तक याद रहेंगी। इनमें अपने नेताओं की बदजुबानी, राजनीतिक दलों में गुंडागर्दी की बढती प्रवृत्ति के साथ लोगों में बढती जागरूकता और अपने अपने भविष्य के प्रति बढती सजगता कुछ मुख्य बिंदु हैं। लेकिन मेरे लिए यह चुनाव दो प्रमुख कारणों से विशेष रहेगा। एक इस चुनाव को मैंने बहुत करीब से महसूस किया और दूसरा इस चुनाव रूपी लोकतांत्रिक महापर्व में न सिर्फ मैंने भाग लिया बल्कि इसके सफल आयोजन में भी मैंने अपना योगदान दिया- एक चुनाव कर्मी के रूप में।
वैसे तो चुनावों को मैं श्री अटल बिहारी वाजपेयी के दौर से और उत्तर प्रदेश में श्री कल्याण सिंह के दौर से याद कर पा रहा हूँ लेकिन तब मैं एक विद्द्यार्थी था और मैंने अपने गाँव से बाहर का भारत बहुत कम देखा था। राजनीति की समझ भी देश प्रेम, विकास और कुछ चुनिन्दा शब्दों तक ही सीमित था। लेकिन चुनावों के बाद श्री वाजपेयी की सरकार दौरान मैंने यह काफी शिद्दत से महसूस किया कि यदि दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो सकारात्मक बदलाव काफी सहज हो जाते हैं। मैंने श्री नितीश कुमार को रेल मंत्री के रूप में भारत के रेलवे भर्ती बोर्ड में आमूल चूल बदलाव करते हुए महसूस किया जिसने तब विभिन्न रेलवे भर्ती बोर्ड में जड़ों तक व्याप्त भ्रष्टाचार को काफी हद तक कम या मैं कहूँ तो नगण्य कर दिया और मेरे जैसे सैकड़ो युवाओं को भारतीय रेल में अपना रोजगार पाने में सफलता मिल सकी। उत्तर प्रदेश में मैंने श्री कल्याण सिंह को वहाँ की शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन करते हुए देखा। मैंने स्पष्ट रूप से महसूस किया कि अध्यापक अपनी कक्षाओं में नियमित रूप से उपस्थित रहने लगे थे जो मेरे जैसे युवक जो कोचिंग कक्षाओं में जाने में सक्षम नहीं थे, के लिए काफी लाभदायक रहने वाली थी लेकिन दुर्भाग्य से श्री कल्याण सिंह को इसी मुद्दे पर अगले चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा और श्री मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री बनते ही अपने वादे के मुताबिक नक़ल अध्यादेश को समाप्त कर दिया जो हमारे लिए और समग्र रूप से पूरे उत्तर प्रदेश कि शिक्षा व्यवस्था के लिए काफी नुकसानदेह साबित हुआ। मैंने महसूस किया कि किस तरह ये नेता सत्ता हासिल करने के लिए विकास के वास्तविक स्वरुप के लिए जनता को दूरदृष्टि देने की बजाय क्षुद्र और अल्पकालीन लाभों का लालच देते हैं। यदि मैं स्पष्ट कहूँ तो दरअसल मैं तभी से समाजवादी पार्टी और मुलायम सिंह यादव का विरोधी हो गया। समाज वादी पार्टी का वही दृष्टिकोण अब पुनः तब स्पष्ट हो गया जब मुलायम सिंह यादव ने वोट पाने के लिए बलात्कार जैसे अपराध को छोटा बता दिया। इससे देश में बढ़ते अपराधों का कारण भी अधिक स्पष्ट होता है। वैसे भी समाज वादी पार्टी अपने शासन के लिए कम अपनी गुंडागर्दी के लिए ही ज्यादा मशहूर थी कम से कम मेरी नज़रों में। मैंने उनके तत्कालीन नेता और विधायक श्री विक्रम सिंह की हफ्ता वसूली और दादागिरी के बारे में काफी सुना था। सन २००० के बाद मैं रोजगार के सिलसिले में उत्तर प्रदेश के अपने गाँव से बाहर निकला। और तब मुझे देश की वास्तविक तस्वीर दिखनी शुरू हुई।
इस चुनाव को मैंने काफी करीब से महसूस किया। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि श्री अरविन्द केजरीवाल के राजनीति में आने और आम आदमी पार्टी के गठन ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मैंने अपने अन्दर कुछ घटित होते हुए महसूस किया। इससे पहले श्री एना हजारे के आन्दोलन को मैंने देखा और आज के भारत में आंदोलनों की सीमाओं को महसूस किया। श्री केजरीवाल के राजनीति में आने से पहले ही मुझे यह निश्चय हो गया था कि सिर्फ आंदोलनों से परिस्थितियाँ बदली नहीं जा सकती हैं। आंदोलनों से हम याचक बन जाते हैं जो मुझे किसी भी स्थिति में सह्य नहीं है। मैं यह विश्वास करता हूँ कि जो किसी का हक़ है वह उसे मांगने कि जरुरत नहीं पड़नी चाहिए और जिसका मुझे अधिकार नहीं है वह मुझे मांगने कि जरुरत नहीं है। और जब तक ऐसा नहीं है विकास नहीं कहा जा सकता। हमारे परंपरागत भारतीय समाज में तो यहाँ तक प्रचलित है कि बच्चा भी जब तक रोता नहीं है तब तक माँ उसे दूध नहीं पिलाती है। हमारी इसी आस्था के कारण जिसे देखो हाथ फैलाये मांगने चला आता है। बच्चा रोने के अलावा कुछ कर नहीं सकता इसलिए रोता है। लेकिन हम रोने से आगे भी बहुत कुछ कर सकते हैं। आज के भारत में आन्दोलन करना महज रोने के जैसा ही है, मुद्दा चाहे जो हो। और मांगने पर तो भीख नहीं मिलती! जब आप मांगने पर उतर आते हैं तो गलत सही का फैसला देने वाले के हाथ में आ जाता है यानि देने वाला सही समझेगा तो देगा और देने वाला गलत समझेगा तो नहीं देगा। यहीं से हमारी राजनीति का आपराधीकरण और स्तरहीनता का प्रारंभ होता है। यहीं से हमारी राजनीति में देने वाला अपने को दाता और शासक समझने लगता है और आन्दोलन करने वाला अपने को प्रजा समझने लगता है जिसके किसी मूल्य का कोई मूल्य नहीं है लेकिन उसको हर मांग के लिए आन्दोलन करने का हक़ है। मैं आन्दोलन करने के विरूद्ध नहीं हूँ लेकिन मैं परिस्थितियां बदलने में विश्वास करता हूँ। मैं यह मानता हूँ कि लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक का स्वतंत्र अस्तित्व है, और हर नागरिक को उसकी मूलभूत आवश्यकताओं को प्राप्त करने के समान अधिकार हैं। इस अधिकार में किसी भी स्थिति में किसी के साथ भी भेद भाव नहीं किया जा सकता है। इस अधिकार में जीवन का अधिकार (चिकित्सा के साथ), अपने विकास का अधिकार (शिक्षा के साथ) और सामाजिक समानता का अधिकार मुख्य हैं। इसके साथ लोकतंत्र में किसी भी नागरिक को उसके किये अपराधों के लिए उसके रुतबे, पद और आर्थिक सम्पन्नता के आधार पर भी कोई भेद भाव नहीं हो सकता। क्या हमारे भारत में ऐसा है? मुझे ऐसा महसूस नहीं हुआ। आज भारत में आपको बहु- स्तरीय भेद भाव दिखाई देंगे। हमें इसे बदलना ही होगा लेकिन समस्या यह है कि नागरिकों के लिए यह कोई समस्या है ही नहीं। पिछले कई दशकों से नागरिक, नागरिकों की बजाय प्रजा की तरह रह रहे हैं और उसे इन्होंने मानक के तौर पर स्वीकार करना सीख लिया है। लेकिन श्री अरविन्द केजरीवाल के राजनीति में आने के बाद ये स्थितियाँ कुछ बदली हैं और यही हमारे परंपरागत राजनीति दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। लोकसभा आम चुनाव २०१४ में मैंने बिहार के एक गाँव में मतदान अधिकारी - I की भूमिका में काम किया और मुझे यह देख सुखद आश्चर्य हुआ कि लोग अब राजनीतिक दलों की आवश्यकता और अपने समाज में उनकी भूमिका को ज्यादा सही समझ पा रहे हैं। मतदान के दौरान मैंने लोगों ने मुझसे कहा कि ये राजनेता तो चाहे किसी दल के हों पाँच वर्षों में कुछ ही बार हमारे पास आते हैं लेकिन हमें रहना तो अपने पड़ोसियों के साथ ही है। लोग अब पहले की तरह इन राजनीतिज्ञों के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए दीवाने नहीं हैं। यह बदलाव निश्चित रूप से अभी बहुत छोटे स्तर पर हैं लेकिन एक चिन्तक ने बहुत सही कहा है कि समाज में जिस कुरीति पर लोग बात करना कम कर देते हैं वह कुरीति ज्यादा दिन नहीं रह सकती और समाज में जिस बदलाव के विषय में लोग बात नहीं कर सकते वह बदलाव समाज में हो नहीं सकता।